॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*सारग्राही का अंग १७*
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*दादू मन हंसा मोती चुणै, कंकर दिया डार ।*
*सतगुरु कह समझाइया, पाया भेद विचार ॥७॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! हंस रूपी उत्तम संत, कंकर रूप सांसारिक वैभव, माया की आसक्ति त्यागकर मोती ब्रह्मतत्त्व अथवा निष्काम नामरूप का विचार करते हैं । जब से सतगुरु ने कृपा करके आत्म - उपदेश दिया है, तभी से साधक ने ब्रह्म का भेद प्राप्त किया है ॥७॥
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*दादू हंस मोती चुणै, मानसरोवर जाइ ।*
*बगुला छीलर बापुड़ा, चुण चुण मछली खाइ ॥८॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे हंस तो मोती चुगता है और बगुला मछली खाता और थोड़े जल में रहता है । इसी प्रकार हंस रूप संत, मानसरोवर रूपी सत्संग में, ब्रह्म तत्त्व का निश्चय रूप मोती चुगाकर, आत्मा आनन्द में तृप्त रहते हैं । और देह अध्यासी अज्ञानी संसारीजन कुसंग के प्रभाव से विषय - विकारों को भोगने में ही अमूल्य मनुष्य शऱीर को व्यर्थ ही गमाते हैं ॥८॥
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*दादू हंस मोती चुगैं, मानसरोवर न्हाइ ।*
*फिर फिर बैसैं बापुड़ा, काग करंकां आइ ॥९॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिस प्रकार हंस मानसरोवर में स्नान करके मोती चुगता है, वैसे ही उत्तम संतजन ब्रह्मसरोवर में ब्रह्म विचार द्वारा मन को स्थिर करके अभेद निश्चयरूप मोती चुगते हैं । और कौवा रूपी संसारी अज्ञानीजन, शरीर अध्यास और स्त्री आदि शरीर में ही आसक्त रहकर पुनः पुनः संसार के जन्म - मरण में भटकते हैं ॥९॥
हंस काग के संग लगि, थलियां आयो भूल ।
त्रिसंक देख्यौ करंक जव, दुखित भयो गयो डूल ॥
दृष्टान्त - यह दृष्टान्त पहले आ चुका है ।
इन्दव छन्द
हंस गयो चल काग के संग में,
मानसरोवर चाल बतायो ।
छीलर ले चलियो थलियां अरु,
सांख सु तीन की खेजरि पायो ॥
देखि करंक कुबुद्धि कह्यो जु मराल,
विहाल कि साल सवायो ।
नारि संवारि गंवार कही भलि,
देखि हरी कहि पेखि भुलायो ॥
(क्रमशः)
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