गुरुवार, 20 जून 2013

= मध्य का अंग १६ =(५२/५४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू हिन्दू लागे देहुरे, मुसलमान मसीति ।*
*हम लागे एक अलेख सौं, सदा निरंतर प्रीति ॥५२॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! हिन्दू तो मन्दिर में मूर्ति - स्थापना, सेवा, पूजा, प्रार्थना आदि के कारोबार में लगे हैं, और मुसलमान मस्जिद में कलमा, नमाज, रोजा आदि के कारोबार में स्थित हैं । परन्तु सच्चे ब्रह्म - वेत्ता संत निष्काम भाव से निरन्जन राम में ही अखंड़ लय लगाते हैं ॥५२॥ 
*न तहाँ हिन्दू देवरा, न तहाँ तुरक मसीति ।* 
*दादू आपै आप है, नहीं तहाँ रह रीति ॥५३॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! उस शुद्ध ब्रह्म में सत्, चित्, आनन्द, अखंड, एक रस, चेतन तत्त्व है । वहाँ माया के गुण - कर्मों का अत्यन्त अभाव होने से न तो वहाँ हिन्दुओं का मन्दिर है और न मुसलमानों की मस्जिद है । अखंड ब्रह्मतत्त्व में मंदिर - मस्जिद की परिछिन्नता असम्भव है ॥५३॥ 
*यहु मसीत यहु देहुरा, सतगुरु दिया दिखाइ ।* 
*भीतर सेवा बन्दगी, बाहिर काहे जाइ ॥५४॥* 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह मनुष्य का शरीर ही मानो मंदिर और मस्जिद है अर्थात् दोनों हाथों को ऊपर करने से यह मस्जिद है और उन्हीं दोनों हाथों को सिद्ध आसन लगाकर दोनों घुटनों पर रखने से मन्दिर बन जाता है । इसके अन्दर ही इसको रचने वाला परमेश्‍वर निवास करता है । उसका नाम - स्मरण रूप सेवा और बन्दगी को त्यागकर बहिरंग साधनों में क्यों भ्रमते हो ॥५४॥ 
केई लेइ मसीत पष, केई मूरत लागे । 
कहै पृथ्वीनाथ ये सोवत देखे, दोउ बिच रहे सो जागे ॥ 
(क्रमशः)

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