॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दोनों हाथी ह्वै रहे, मिल रस पिया न जाइ ।*
*दादू आपा मेट कर, दोनों रहें समाइ ॥५५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जैसे दो मदोन्मत हाथी एक साथ सरोवर में जल नहीं पी सकते हैं, वैसे ही धर्मोन्मत अपनी - अपनी पक्ष में बंधे हुए हिन्दू - मुसलमान, ब्रह्मानन्द रूप एकता को भूलकर, धार्मिक वाद - विवाद में उलझ रहे हैं । ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज उपदेश करते हैं कि यदि दोनों ही अपना मिथ्या अभिमान त्यागकर निष्पक्ष भाव से अपनी - अपनी धारणा के अनुसार परमेश्वर कारण ब्रह्म का स्मरण करें तो दोनों ही व्यावहारिक विषमता को त्यागकर जन - समुदाय से प्यार करते हुए परमेश्वर में समा जाते हैं ॥५५॥
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*भयभीत भयानक ह्वै रहे, देख्या निर्पख अंग ।*
*दादू एकै ले रह्या, दूजा चढै न रंग ॥५६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! निर्गुण ब्रह्म का स्वरूप सुनकर अज्ञानीजन चकित हो रहे हैं क्योंकि उनसे निष्काम निर्गुण ब्रह्म की भक्ति नहीं की जाती है और फिर ब्रह्मवेत्ता संतों के निष्पक्ष व्यवहार को देखकर हिन्दू - मुसलमान भयानक भयभीत हो रहे हैं कि जिन संतों ने एक ब्रह्मतत्त्व का निश्चय किया है, उनको द्वैतभाव अच्छा नहीं लगता है ॥५६॥
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*जानै बूझै साच है, सबको देखन धाइ ।*
*चाल नहीं संसार की, दादू गह्या न जाइ ॥५७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन सत्यस्वरूप ब्रह्म का सभी साक्षात्कार करना चाहते हैं, किन्तु लोकाचार के बन्धनों से साधारण जन सत्य - स्वरूप का निश्चय नहीं कर सकते हैं । और फिर संसारीजन निष्पक्ष ब्रह्मवेत्ता संतों को धन्य मानते हैं । उनके दर्शनों के लिये देश - देशान्तर में जाते हैं । परन्तु संसार की चाल, कहिए मत - मतान्तरों के बाह्य - चिन्ह नहीं होने से संतों का मध्य मार्ग, संसारीजनों से नहीं धारण किया जाता है ॥५७॥
(क्रमशः)
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