॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*= मध्य का अंग १६ =*
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*दादू पख काहू के ना मिले, निर्पख निर्मल नांव ।*
*सांई सौं सन्मुख सदा, मुक्ता सब ही ठांव ॥५८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सच्चे ब्रह्मवेत्ता संत, हिन्दू - मुसलमान आदि किसी भी साम्प्रदायिक धर्म में नहीं मिलते हैं, वे सर्व मतों से निष्पक्ष समताभाव को धारण करके भगवान् के निष्काम नामों का स्मरण अखंड भाव से करते हुए केवल प्रभु में ही वृत्ति लगाकर रहते हैं और लोक - कल्याण के लिये सारी वसुधा पर विचरते और उपदेश करते रहते हैं ॥५८॥
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*दादू जब तैं हम निर्पख भये, सबै रिसाने लोक ।*
*सतगुरु के परसाद तैं, मेरे हर्ष न शोक ॥५९॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जब से ब्रह्मवेत्ता मुक्तजन संत निष्पक्ष हुए हैं अर्थात् मध्य - मार्ग पर चलते हैं, तब से कर्म - काण्डी संसारीजन उनसे द्वैतभाव करते हैं । परन्तु वे व्यवहार में भी परमेश्वर की कृपा मानकर हर्ष - शोक से रहित होकर रहते हैं, किन्तु ऐसी अवस्था सतगुरु की कृपा से ही प्राप्त होती है ॥५९॥
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*निर्पख ह्वै कर पख गहै, नरक पड़ैगा सोइ ।*
*हम निर्पख लागे नाम सौं, कर्त्ता करै सो होइ ॥६०॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! जो उत्तम पुरुष, अद्वैत ब्रह्म की उपासना धारण करके फिर मत - मतान्तरों के पक्ष में बँध जायेंगे,तो वे आवागमन के चक्र में अवश्य भ्रमते रहेंगे । इसीलिए संतजन निष्पक्ष नाम के स्मरण में रत्त रहते हैं और सर्व व्यवहार प्रभु की कृपा पर छोड़ देते हैं ॥६०॥
अद्वैतभावमाश्रित्य द्वैताचारेण वर्तते ।
रुदन्ति पितरस्तस्य, हा ! कष्टे पतितः पुनः ॥
(क्रमशः)
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