बुधवार, 26 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१/३)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
.
*अथ सारग्राही का अंग १७*
"दादू तज संसार सब, रहै निराला होइ ।" इस सूत्र के व्याख्यान स्वरूप मध्य के अंग के बाद अब सारग्राही के अंग का निरूपण करेंगे ।
*मंगलाचरण* 
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
टीका - हरि, गुरु, सन्तों के चरणों में हमारी बारम्बार बन्दना है । जिनकी कृपा से जिज्ञासु सर्व पक्षपात को त्यागकर निष्पक्ष भाव से सार ब्रह्म को प्राप्त होते हैं ॥१॥ 
*दादू साधु गुण गहै, औगुण तजै विकार ।* 
*मानसरोवर हंस ज्यूं, छाड़ि नीर, गहि सार ॥२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे मान सरोवर के हंस जल को त्यागकर दूध और मोती चुगते हैं, वैसे ही ब्रह्मरूप मानसरोवर के संतजन सर्व जीवों के अवगुण विषय - विकारों को त्यागकर उत्तम गुण ग्रहण करते हैं और नाम रूपी मोती चुगते हैं ॥२॥ 
हंस चंच तुलसी बसै, भिन्न करै पय नीर । 
पंषी ओर अभेदकर, रुचि रुचि पीवै नीर ॥ 
*हंस गियानी सो भला, अन्तर राखे एक ।* 
*विष में अमृत काढ ले, दादू बड़ा विवेक ॥३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! वे आत्मज्ञानी श्रेष्ठ हैं, जो हृदय में एक निर्गुण राम में ही अखंड वृत्ति लगाते हैं और संसार - विष रूप में से, विवेक द्वारा व्यापक - स्वरूप अमृत निकालते हैं एवं विषरूप अनात्म - शरीर में आत्मारूप अमृत का निश्‍चय करते हैं ॥३॥ 
सारग्राही संतजन, खीर नीर ज्यों हंस । 
जगन्नाथ निरवारले, विष में अमृत अंस ॥ 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें