बुधवार, 26 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(४/६)


॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*पहली न्यारा मन करै, पीछै सहज शरीर ।*
*दादू हंस विचार सौं, न्यारा किया नीर ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संत जब मन को संसार और देहअध्यास से उदास करके, फिर शरीर से निष्काम भाव से प्रारब्ध अनुसार स्वतः ही व्यवहार करते हैं और हर्ष, शोक, तृष्णा, राग - द्वेष, ये सब तमोगुण के कार्य - विकार उन संतों को नहीं व्यापते हैं । इस प्रकार वे संत सारग्राही दृष्टि से आत्म - स्वरूप को, संसारभाव से न्यारा, निर्विकार स्वरूप से निश्‍चय करते हैं ॥४॥ 
*आपै आप प्रकाशिया, निर्मल ज्ञान अनन्त ।* 
*क्षीर नीर न्यारा किया, दादू भज भगवंत ॥५॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! मुक्त - पुरुषों पर आप स्वयं परमेश्‍वर ने कृपा करके, उनके अन्तःकरण में आप अनन्तस्वरूप होकर प्रकाशते हैं अथवा संत, परमेश्‍वर का नाम - स्मरण करके शुद्ध रूप का ज्ञान हृदय में प्राप्त करते हैं, जिससे जल - दूध की भांति सार - असारक का निश्‍चय करके, ब्रह्म - तत्त्व में ही मग्न रहते हैं ॥५॥ 
‘कबीर’ खीर रूप हरि नाम है, नीर आन व्यौहार । 
हंस रूप कोइ साध है, त्तत का जाणनहार ॥ 
*क्षीर नीर का संत जन, न्याव नबेरैं आइ ।* 
*दादू साधु हंस बिन, भेल सभेले जाइ ॥६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संतजन ही सार असार का निर्णय करके, केवल सार चैतन्य ब्रह्मतत्त्व को ही ग्रहण करते हैं अर्थात् धारण करते हैं और हंस के बिना दूसरे जीव, दूध और जल को मिला हुआ ही पान करते हैं । इसी तरह संसारीजन जगत में आसक्ति द्वारा ही सकाम भक्ति करते हैं । केवल निष्काम तो संतजन ही ब्रह्म - चिन्तन करते हैं ॥६॥ 
(क्रमशः)

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