रविवार, 30 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१६/१८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू काम गाय के दूध सौं, हाड़ चाम सौं नांहि ।*
*इहिं विधि अमृत पीजिये, साधु के मुख मांहि ॥१६॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! बच्छे को गाय को दूध से मतलब है, गाय के हाड़ - चाम से कोई मतलब नहीं है । इसी प्रकार संसार में माया प्रपंच का पसारा है, परन्तु उत्तम जिज्ञासु को सारग्राही बुद्धि से, माया - प्रपंच से उदास होकर ब्रह्मवेत्ता संतों के मुखारबिन्द से ज्ञानामृत रूप दूध को ही पान करना चाहिये ॥१६॥ 
सार गह जगन्नाथ जन, ले असार संसार । 
भाव भक्ति पै बच्छ ज्यौं, चींचर रुधिर विकार ॥ 
*स्मरण नाम* 
*दादू काम धणी के नाम सौं, लोगन सौं कुछ नांहि ।* 
*लोगन सौं मन ऊपली, मन की मन ही मांहि ॥१७॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अनन्य भक्तों के अन्तःकरण में केवल राम - नाम की ही अखण्ड लय लगी रहती है । बहिर्मुख लोगों से कुछ मतलब नहीं रखते । और यदि बहिर्मुख लोग आ भी जावें संतों के पास, तो उनसे ऊपरी मन से वार्ता कर लेते हैं, परन्तु मन की प्रीति एक परमेश्‍वर के नाम में ही लगी रहती है ॥१७॥ 
*जाके हिरदै जैसी होइगी, सो तैसी ले जाइ ।* 
*दादू तू निर्दोष रह, नाम निरंतर गाइ ॥१८॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जिनके अन्तःकरण में जैसी भावना होती है, उन्हीं भावों को लोग संतों के शरीर में अध्यारोपित करते हैं, अर्थात् देखते हैं । परन्तु वे संत तो सर्वथा निर्दोष रहते हैं और राम - नाम का स्मरण करते हैं । इसलिये अन्तःकरण में शुभ संकल्प रखिये, क्योंकि जीवन काल में जीव के जैसे संस्कार होते हैं, मृत्यु के बाद भी वही संस्कार जीव को भ्रमाते हैं ॥१८॥
इक कोली इक बाणियों, साधु सेइ दे गाल । 
बणिक तिर्यो कोली मर्यो, द्वै भुज सिर लख बाल ॥ 
दृष्टान्त - एक गाँव में एक बनिया और दूसरा कोली रहता था । बनिया एक सिद्ध योगी महात्मा की सेवा करता था और कोली उसी महात्मा को जाकर गालियाँ दिया करता था । बनिया संत सेवा करके परम पद को प्राप्त हो गया और कोली को एक रोज महात्मा बोला - "मांग वर !" कोली ने मन में सोचा कि एक रेजी बुनता हूँ दिन भर में, सो दो रेजी बुन लूं, ऐसा वर मागूं । तब बोला - "मेरे दो सिर और चार हाथ बना दो ।" महात्मा ने कहा, "तेरे दो सिर और चार हाथ हो जाओ ।" कोली राजी होकर गाँव की तरफ आया । गाँव के बालकों ने देखा कि यह भूत गाँव को नष्ट करेगा, इसलिये इसको यहीं मार दो । पत्थर मार - मार कर कोली को खत्म कर दिया ।
(क्रमशः)

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