रविवार, 30 जून 2013

= सारग्राही का अंग १७ =(१९/२१)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*सारग्राही का अंग १७*
*दादू साध सबै कर देखना, असाध न दीसै कोइ ।*
*जिहिं के हिरदै हरि नहीं, तिहिं तन टोटा होइ ॥१९॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! अपने अन्तःकरण में विचाररूपी नेत्रों से हम तो सबको साधु ही करके देखते हैं, कोई भी असाधु नहीं दिखाई देता है । जिसके अन्तःकरण में परमेश्‍वर का नाम - स्मरण नहीं है, उसके घाटा रहेगा । हमारे तो घाटा रहेगा नहीं, क्योंकि हम तो अपने भाव से साधु ही करके देखते हैं ॥१९॥ 
कबीर साकत को नहीं, सबै वैष्णव जान । 
जा तन राम न उच्चरै, ताही तन को हान ॥ 
कांगो पूज्यो साध कर, परचा तैं भई मान । 
नृप सुनी लारे लग्यो, करक सूंघ भयो ग्यान ॥ 
दृष्टान्त - एक राजा के बाग में एक कांगा आ गया । माली उसे साधु जानकर पुत्र की इच्छा से सेवा करने लगा । माली के पुत्र हो गया । माली खुशी में पुष्प - गुच्छ लेकर राजा के पास गया । राजा - "यह कैसी पुष्प - गुच्छ है ? माली - "एक संत की सेवा से लड़का हुआहै ।" राजा - "हमारे भी लड़का नहीं है, हम भी उनसे लड़का मांगने आते हैं ।" माली - "ठीक है हुजूर ।" माली आकर कांगा से बोला, "आपके पास राजा पुत्र लेने आता है ।" कांगा ने सोचा, "मेरे पास पुत्र कहाँ है ?" राजा आया । कांगा उठ करके दौड़ चला डर से । राजा ने समझा, यह ऐसे कहता है कि मेरे पीछे आ जा । कांगा ने पीछे देखा तो राजा दौड़ा आ रहा है । जंगल में एक जगह मरे ऊंट का पिंजर पड़ा था । कांगा ने उसको सूंघा और राजा की तरफ देख कर दौड़ गया । राजा ने सोचा कि यह सैन में बता गये कि इसे सूंघ कर चला जा, तेरे लड़का हो जाएगा । राजा सूंघ कर राज महलों में आ गया । कांगा ने तो मन में सोचा था कि मुझे गन्दा जान कर लौट जाएगा, परन्तु राजा के अपने भाव से लड़का हो गया । कांगा की मान प्रतिष्ठा बहुत बढ़ गई । 
कबीर सब घट आत्मा, सिरजी सिरजनहार । 
राम भजै सो राम सम, रहिता ब्रह्म विचार ॥ 
*साधू संगति पाइये, तब द्वन्द्वर दूर नशाइ ।* 
*दादू बोहिथ बैस करि, डूँडे निकट न जाइ ॥२०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब सच्चे निष्पक्ष संतों का सत्संग जिसे प्राप्त होता है, वह अपने सम्पूर्ण राग - द्वेष आदि विकारों को त्याग देता है और परमानन्द को प्राप्त करने रूप जहाज में बैठ जाता है । जैसे समुद्र से पार जाने वाले यात्री जहाज में सवार होने के बाद छोटी नौका की इच्छा त्याग देते हैं । इसी प्रकार परमानन्द को प्राप्त होने के बाद तत्त्ववेत्ता सांसारिक सुखों की परवाह नहीं करते हैं ॥२०॥ 
*जब परम पदार्थ पाइये, तब कंकर दिया डार ।* 
*दादू साचा सो मिले, तब कूड़ा काज निवार ॥२१॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जब जौहरी असली हीरा रूपी पदार्थ प्राप्त कर लेता है, तो फिर नकली चमकीले पत्थर के टुकड़ों को छोड़ देता है । इसी प्रकार सच्चे अधिकारी, जब परमानन्द रूपी हीरे को प्राप्त कर लेते हैं, तब फिर खोटा काँच रूप सांसारिक मायावी पदार्थों से प्रीति त्याग देते हैं, अर्थात् सत्य ब्रह्मस्वरूप से वृत्ति मिल गइ तब झूठे काँच की भांति, दुःख रूप मायावी धर्म त्याग देते हैं ॥२१॥
(क्रमशः)

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