॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*सारग्राही का अंग १७*
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*जहँ दिनकर तहँ निशि नहीं, निशि तहँ दिनकर नांहि ।*
*दादू एकै द्वै नहीं, साधुन के मत मांहि ॥२४॥*
दृष्टान्त ~ हे जिज्ञासुओं ! जब सूर्य उदय हो जाता है, फिर वहॉं रात्रि रूप अन्धेरा नहीं रहता, और जहॉं रात्रि रूप अन्धेरा है, वहॉं सूर्य का प्रकाश नहीं है । इसी प्रकार अद्वैतवादी संतों के अन्तःकरण में ब्रह्म - प्रकाश प्रकाशता है, वहॉं फिर मायिक आवरण का अभाव हो जाता है और जिन अज्ञानी सांसारिक मनुष्यों के अन्तःकरण में मायिक आवरण हैं, उनको मायावी सुख ही अच्छे लगते हैं, ब्रह्म - प्रकाश से वह उदास ही रहते हैं । जैसे घूघू को रात ही अच्छी लगती है, क्योंकि उसके लिये वही दिन है और दिन का प्रकाश उसके लिये रात है ॥२४॥
जहॉं राम और कामना, किमि दोउ ठहराहिं ।
रवि और रजनी एकठे, हम कहुं देखे नाहिं ॥
ब्रह्म तहॉं माया नहीं, माया तहॉं न ब्रह्म ।
‘जगन्नाथ’ भ्रम ज्ञान बिना, ज्ञान तहॉं नहीं भ्रम ॥
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*दादू एकै घोड़ै चढ चलै, दूजा कोतिल होइ ।*
*दुहुँ घोड़ों चढ बैसतां, पार न पहुंता कोइ ॥२५॥*
इति सार ग्राही का अंग सम्पूर्ण ॥अंग १७॥साखी २५॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! घुड़सवार एक साथ दो घोड़ों पर बैठकर नहीं चल सकता । घुड़सवार एक घोड़े पर खुद बैठता है और दूसरा सहायक कोतल घोड़ा, अपने घोड़े के पीछे साथ ले लेता है । इसी प्रकार एक अद्वैत ब्रह्म में वृत्ति लगाकर जीवन - मुक्त रहता है । उसके वस्त्र, भोजन और अन्य शारीरिक व्यवहार, ‘‘कोतिल’’ कहिये, गौणरूप से स्वतः ही पूर्ण होते रहते हैं । मुमुक्षु को अध्यात्म के साथ - साथ निष्काम - भाव को परोपकार एवं शारीरिक व्यवहार भी करते रहना चाहिये । परन्तु उसमें आसक्त नहीं रहे और अध्यात्म में ही अपनी वृत्ति को एकाग्र रखे । ऐसे उत्तम पुरुष ही स्वस्वरूप को साक्षात्कार करते हैं ॥२५॥
इति सारग्राही का अंग टीका सहित सम्पूर्ण ॥अंग १७॥साखी २५॥
(क्रमशः)
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