मंगलवार, 2 जुलाई 2013

= विचार का अंग १८ =(१/२)

 ॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*विचार का अंग १८*
"सतगुरु कहि समझाइया, पाया भेद विचार ।" इस सूत्र के व्याख्यान सारग्राही के अंग के अनन्तर, अब विचार के अंग का निरूपण करते हैं । इस अंग में अद्वैत, असंग, निर्विकल्प, निर्गुण, सर्व - व्यापक, ब्रह्म - तत्व का विचार किया है । 
*मंगलाचरण* 
*दादू नमो नमो निरंजनं, नमस्कार गुरुदेवतः ।* 
*वन्दनं सर्व साधवा, प्रणामं पारंगतः ॥१॥* 
टीका - निरंजनदेव, गुरु, सन्तों के चरणों में हमारी बारम्बार वन्दना है । जिनकी कृपा से जिज्ञासुजन सारग्राही बुद्धि द्वारा सर्व प्राणियों में ब्रह्म - सत्ता का निश्‍चय करके स्वस्वरूप के विचार में ही मग्न रहते हैं ॥१॥ 
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*ज्ञान परिचय* 
*दादू जल में गगन, गगन में जल है, पुनि वै गगन निरालं ।* 
*ब्रह्म जीव इहिं विधि रहै, ऐसा भेद विचारं ॥२॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे जल तो आकाश के अवकाश में भरा रहता हैऔर जल में आकाश व्याप्त रहता है । क्योंकि जल में आकाश होने से ही शक्कर, नमक वगैरा सब जल में घुल जाते हैं, परन्तु वह निराकार आकाश, जल में व्याप्त होता हुआ भी, जल से भिन्न असंग रहता है । इसी प्रकार काम्य कर्म रहित बुद्धि जल रूप है और जीव शरीर में व्याप्त, पूर्ण ब्रह्म रूप आकाश के तद्वत है । वही जल रूप ब्रह्म, बुद्धि के अन्दर अविद्या के गुणों से अलग अर्थात् असंग रहकर भी जीव के भीतर ही व्याप्त है । और जीवात्मा का निज आनन्द - स्वरूप आत्मा, सब प्रकार निर्द्वन्द्व हुआ सदा एकरस रहता है ॥२॥ 
घट सम कारण देह है, घटाकाश कूटस्थ । 
जल संघात सो जानिये, चिदाभास प्रशस्त ॥ 
(क्रमशः)

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