बुधवार, 3 जुलाई 2013

= विचार का अंग १८ =(५/६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*विचार का अंग १८*
*ज्ञान परिचय*
*जीयें तेल तिलनि में, जीयें गंध फूलनि ।* 
*जीयें माखणु खीर में, ईयें रब्ब रूहनि ॥५॥* 
टीका - हे जिज्ञासु ! जिस प्रकार तिलों में तेल व्याप्त है, पुष्प में गन्ध व्याप्त है, वैसे ही दूध में घृत एक रस रहता है । इसी प्रकार सर्व जीवों में और सम्पूर्ण संसार में चैतन्य स्वरूप ब्रह्म व्याप्त है ॥५॥ 
तिल - मध्ये यथा तैलं काष्ट - मध्ये हुताशनम् । 
पयमध्ये यथा घृतं, देह - मध्ये देवेश्‍वरः ॥ 
*ईयें रब्ब रूहनि में, जीयें रूह रगनि ।* 
*जीयें जेरो सूर मां, ठंडो चन्द्र बसंनि ॥६॥* 
टीका - हे जिज्ञासु ! जिस प्रकार परमेश्‍वर जीव में व्यापक है, वैसे ही जीव शरीर के रोम - रोम में व्यापक है । और जैसे सूर्य में प्रकाश व्यापक है, चन्द्रमा में शीतलता व्यापक है, इसी प्रकार साक्षीभाव से सर्व जीवों में एकरस ब्रह्म व्यापक है ॥६॥ 
*इन्दव छन्द* 
ज्यों तप तेज प्रभाकर पूरण, 
सोम सुधा हिम सीत पसारो । 
तेल बसै तिल, गन्ध रसाति में, 
दूध रहै घृत माहिं विचारो ॥ 
पाहन पावक, सूत सदा पट, 
वृक्ष बसै रस, सिंगरफ पारो । 
जीव में शीव सही विस्तीरण, 
आतम राम हरी जु हमारो ॥ 
(क्रमशः)

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