बुधवार, 3 जुलाई 2013

= विचार का अंग १८ =(७/८)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*विचार का अंग १८*
*दादू जिन यहु दिल मंदिर किया, दिल मंदिर में सोइ ।*
*दिल मांही दिलदार है, और न दूजा कोइ ॥७॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जिस माया - विशिष्ट ईश्‍वर ने मन्दिर रूप जीवों के अन्तःकरण को रचकर आप स्वयं परमेश्‍वर ही सर्व - व्यापक भाव से सब अन्तःकरण रूप मन्दिरों में विराजते हैं । इसलिये अपने अन्तःकरण में ही अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा अर्थात् ब्रह्माकार - वृत्ति से साक्षात्कार करो । इसके अतिरिक्त और कोई दूसरा साधन नहीं है ॥७॥
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*मीत तुम्हारा तुम्ह कनै, तुम ही लेहु पिछान ।*
*दादू दूर न देखिये, प्रतिबिम्ब ज्यों जान ॥८॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! अनन्य भक्तों का प्रिय मित्र परमेश्‍वर अन्तःकरण में ही है । इसलिये अपने अन्तःकरण में ही उसका निश्‍चय कीजिये । सो कैसा है परमेश्‍वर ? उसको दूर नहीं जानना । जैसे सूर्य का प्रतिबिम्ब कॉंच में और जल में दिखाई देता है और जल की मलिनता आदि दोषों से निर्मल है, इसी प्रकार अन्तःकरण के मल - विक्षेप दोषों से रहित उस चैतन्य स्वरूप परमेश्‍वर का प्रतिबिम्ब निर्मल है और वह परमेश्‍वर सत् - चित् - आनन्द स्वरूप है ॥८॥
(क्रमशः)

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