मंगलवार, 2 जुलाई 2013

= विचार का अंग १८ =(३/४)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"* 
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी 
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज 
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*विचार का अंग १८*
*ज्यों दर्पण में मुख देखिये, पानी में प्रतिबिम्ब ।*
*ऐसे आत्मराम है, दादू सब ही संग ॥३॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे दर्पण में या जल में प्रतिबिम्ब दिखता है, वैसे ही जीवों के अन्तःकरण में ब्रह्म का चिदाभास पड़कर अन्तःकरण को चेतनता प्रदान करता रहता है । उसी ब्रह्म की सत्ता से सम्पूर्ण व्यवहार होता है । अतः ब्रह्म सर्वत्र ही व्यापक है ॥३॥ 
*सांच* 
*जब दर्पण मांहि देखिये, तब अपना सूझै आप ।* 
*दर्पण बिन सूझै नहीं, दादू पुन्य रु पाप ॥४॥* 
टीका - हे जिज्ञासुओं ! जैसे काँच में अपना स्वरूप मुख दिखाई देता है, इसी तरह अन्तःकरण रूप उपाधि द्वारा पाप - पुण्यमय संसार प्रतीत होता है ॥४॥ 
ज्यों दर्पण में मुख देखतां, मुख दीसत है दोय । 
देखनहारा सत्य है, दूजा मिथ्या जोय ॥ 
(क्रमशः)

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