॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*विचार का अंग १८*
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*विरक्तता*
*दादू नाल कमल जल ऊपजै, क्यों जुदा जल मांहि ?*
*चंद हि हित चित प्रीतड़ी, यो जल सेती नांहि ॥९॥*
टीका - हे जिज्ञासु ! जैसे कमल जल में पैदा होता है, किन्तु जल से फिर अलग निर्लिप्त रहता है और कुमोदनी भी जल में उत्पन्न होती है, परन्तु उसकी जल से प्रीति नहीं होती, चन्द्रमा के साथ उसकी प्रीति होती है । इसी प्रकार मायिक संसार में ही अनन्य भक्त - संत उत्पन्न होते हैं, परन्तु उनकी प्रीति परमेश्वर के साथ होती हैं, मायिक संसार में नहीं होती ॥९॥
पद्मपत्रे यथा तोयं, पत्रं तस्य न लिप्यते ।
शब्दादिविषयान् तद्वद् ज्ञानी न लिप्यते कदा ॥
कमोदनी जल में बसै, चन्द बसै आकाश ।
जो जाके मन में बसै, सो ताही के पास ॥
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*दादू एक विचार सौं, सब तैं न्यारा होइ ।*
*मांहि है पर मन नहीं, सहज निरंजन सोइ ॥१०॥*
टीका - हे जिज्ञासुओं ! सच्चे संतजन ब्रह्म अभ्यास में स्थित - प्रज्ञ होकर माया - प्रपंच से अलग रहते हैं और शरीर से संसार में रहते दीखते हैं, परन्तु उनका मन सच्चिदानन्द रूप ब्रह्म के अभ्यास में ही लगा रहता है । इसीलिये मुक्तजन स्वस्वरूप में मग्न होकर मुक्त रहते हैं ॥१०॥
(क्रमशः)
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