卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्थ दिन ~
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कवि -
वाह्य वृत्ति दिन चतुर्थे, आई आंतर पास ।
नति कर बोली हुई कुछ, अशुभ वासना नास ॥१॥
धर्म कार्य भी करन की, रुचि प्रगटी मन मांहि ।
अब मम सुधार होयगा, इसमें संशय नांहि ॥२॥
सखी ! एक सब सार निकाले,
हो निस्सार अलग तब डाले ।
समझ गई मैं कोल्हू प्यारी,
नहिं, सखि यह तो अधमा नारी ॥३॥
आं. वृ. - 'एक सार निकाल कर फेंक देता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - 'कोल्हू । ईख का रस निकाल कर फेंक देता है ।
आं. वृ. - 'नहिं, सखि ! यह तो अधम स्त्री है । जब तक पुरुष से स्वार्थ सिद्ध होता है तब तक तो उससे प्रेम करती है और धन, बल, रूप का नाश होने पर त्याग देती है किन्तु भली स्त्रियां ऐसा नहीं करती । वे तो घोर विपत्ति में भी पुरुष का पूरा-पूरा साथ देती है । तू कभी भी अधम स्त्रियों का संग न करना । करेगी तो तेरी धार्मिक वृत्ति नष्ट हो जाएगी और पुन: मन मलीन हो जायेगा ।
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मारग करत जाय जिहिं धामा,
औरन का हितकर हो कामा ।
क्या समझी भैंसा मैं जानी,
नहिं, सजनी परमारथि प्रानी ॥४॥
आं. वृ. - 'जहाँ जाता है वहां ही मार्ग बना देता है । उससे अन्य प्राणियों का भी हित होता है । बता वह कौन है ?
वा. वृ. - 'भैंसा है । जिस खेत में घुसता है, उसकी दीवाल में मार्ग बना देता है । उस मार्ग से छोटे-छोटे जीव भी खेत में घुस कर अपनी भूख मिटाते हैं ।’’
आं. वृ. - 'नहिं, सखि ! यह तो परमार्थी मनुष्य है । जहां जाता है वहां ही प्राणियों के कल्याण का मार्ग खोल देता है । तू भी ऐसे परमार्थी सज्जनों का ही संग किया कर जिससे तेरी बुद्धि भी परमार्थ में प्रवेश करने योग्य हो जाय ।
(क्रमशः)
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