सोमवार, 28 अक्टूबर 2013

एकै शब्द अनन्त शिष १/१४६

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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/१३८*
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*एकै शब्द अनन्त शिष, जब सद्गुरु बोले ।*
*दादू जड़े कपाट सब, दे कूंची खोले ॥१४६॥*
दृष्टांत - 
गुरु दादू से मान नृप, कहा शिष्य क्यों कीन्ह ।
स्वामि कहा मैं नहिं किये, भाव भये लग लीन्ह ॥३७॥
आमेर नगर में आमेर नरेश मानसिंह ने एक दिन दादूजी से कहा - आपने इतने अधिक शिष्य क्यों बनाये हैं ? अधिक शिष्य होने से आपके मन में इनके योग - क्षेम का विचार भी उठता ही होगा ? दादूजी ने कहा - न तो मैंने बनाये है और न मेरे मन में इनके योग - क्षेम का विचार ही आता है । ये तो अपने भाव के अनुसार ही मेरे उपदेश द्वारा निरंजन राम में अपनी मनोवृत्ति को लीन कर रहे हैं और वृत्ति द्वारा आप भी ब्रह्मभाव में लीन हो रहे हैं । इनका योग - क्षेम भी परमात्मा ही करते हैं । उनकी प्रतिज्ञा ही है - जो अनन्य भाव से मेरी उपासना करते हैं, उनका योग - क्षेम मैं करता हूँ । उक्त वचन सुनकर राजा मानसिंह अति संतुष्ट हुआ और प्रणाम करके राज भवन की चला गया ।
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द्वितीय दृष्टांत - 
स्वामी रामानुजजी, टेर अर्ध निशि दीन्ह ।
श्रवण बहत्तर के पड़ी, मुक्त भये सब चीन्ह ॥३८॥
रामानुजजी ने तिरुकोट्टियूर के महात्मा नाम्बि से अष्टाक्षर मंत्र(ॐ नमो नारायणाय) की दीक्षा ली थी । नाम्बि ने मंत्र देते समय इनको कहा था कि तुम इस मंत्र को गुप्त रखना किन्तु रामानुज ने रंगमंदिर के मुख्य द्वार पर ऊंचे चढ़कर अर्धरात्रि को उच्च स्वर से सबको सुनाया था । वह ध्वनि ७२ मनुष्यों ने सुनी थी । नाम्बि गुरु को यह बात ज्ञात हुई तो गुरु ने इनको कहा - तुमने ऐसा क्यों किया ? इस अपराध से तुम्हें नरक भोगना पड़ेगा । 
रामानुज ने कहा - नरक में तो मैं एक ही जाऊंगा । किन्तु सुनने वाले तो सब नरक से बच जायेंगे । इससे मुझे अति हर्ष होगा । यह सुनकर गुरु का क्रोध शांत हो गया और उन्होंने प्रेम से इन्हें गले लगा लिया । जैसे रामानुजजी की एक मंत्र ध्वनि से ७२ प्रभु के भक्त बन गये, वैसे ही दादूजी के शिष्य दादूजी के उपदेशों को सुनकर प्रभु में लीन हुये थे । उक्त दृष्टांत का तात्पर्य यही है ।
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तृतीय दृष्टांत - 
गोरख देवी के गये मनुष्य भक्ष्य छुडाय ।
जितने मारे युगन के, कीन्हे शिष्य जिवाय ॥३९॥
जम्बू का राजा एक वर्ष में दो बार चैत्र के नवरात्री की और आश्विन के नवरात्र की अष्टमी को देवी के एक मनुष्य की बलि चढ़ाते थे । मनुष्य नगर के प्रत्येक घर से बारी - बारी से लिया जाता था । एक बार एक वृद्ध माता के घर की बारी आई । राज पुरषों ने उसे कहा - कल अष्टमी को तेरे पुत्र की बारी है । गुलगुले आदि बनाकर पुत्र को तैयार कर देना । 
उसके एक ही पुत्र था वह गुलगुले बनाती हुई रो रही थी । उसी समय भिक्षा के लिये गोरक्षनाथ उसके घर आये । उसे गुलगुले बनाते हुये भी रोती देखकर पू़छा रोती क्यों हो ? उसने उक्त कथा सुना दी । तब गोरक्षनाथ बोले - तुम रोओ नहीं । ये गुलगुले आदि मुझे जिमा दो, तुम्हारे पुत्र के बदले बलि के लिये मैं चला चाऊंगा । माता ने कहा - आप तो संत हैं, भोजन तो जीम लें किन्तु राजपुरुष आपको कैसे ले जायेंगे ? गोरक्षनाथ - मैं कह दूंगा मैं इसका बड़ा बेटा हूँ । तुम भी ऐसा कह देना । वृद्धा नै वैसा ही किया । 
गोरक्षजी को भोजन जिमा दिया । राजपुरुष आये तब कह दिया - यह मेरा बड़ा बेटा है । राजपुरुष गोरक्षनाथ को ले गये । मन्दिर में बलि देने को खड़ा कर के राजा उन पर तलवार का प्रहार करने लगा । तब देवी ने प्रकट होकर राजा के हाथ की तलवार छीनकर अपने हाथ में लेली और राजा आदि जो वहां थे उन सब के शिर काट डाले । 
फिर हाथ जोड़कर गोरक्षनाथ से कहने लगी - ये बड़े दुष्ट थे, मेरी आड में प्राणियों को मारकर उनका मांस खाते थे । मेरा कोई दोष नहीं है । गोरक्षनाथ - यदि तेरा दोष नहीं तो तेरे मन्दिर में जितने मनुष्य मारे गये हैं उन सबको जीवित कर दे । मैं उनका उपदेश द्वारा उद्धार कर दूंगा । तब देवी ने उस वन में एक जल की अंजलि फेंकी । उससे अनेक मनुष्य जीवित हो गये । 
गोरक्षनाथजी ने उन सब को एक अद्वितीय ब्रह्म का वाचक शब्द सुनाकर उनमें ज्ञान उत्पन्न करके सबको मुक्त कर दिया । उस दिन से उस देवी के मन्दिर में जीव हिंसा सर्वथा बन्द हो गई और उस देवी का नाम भी वैष्णवी देवी पड़ गया । उक्त प्रकार गुरु जब एक शब्द बोलते हैं तब अनेक शिष्य अपने आप ही हो जाते हैं, उस शब्द से ही उनके अज्ञान के कपाट भी खुलकर ज्ञान द्वारा वे मुक्त हो जाते हैं ।

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