गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

दादू नीका नाम है २/२१


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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*स्मरण का अंग २/२१*
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*सहगुण निर्गुण हो रहै, जैसा हे तैसा लीन ।*
*हरि सुमिरण ल्यौ लाइये, का जाणौं का कीन ॥२१॥*
उक्त साखी पर दृष्टांत - 
गुरु दादू ढिग वाद से, आये द्वै पखि देखि ।
तिन दोनों की बात सुन, भाष्यो भजन विवेक ॥३॥
एक सगुण उपासक और एक निर्गुण उपासक दोनों साधकों में विवाद चलता था । सगुण उपासक कहता था, निर्गुण को किसने देखा, वह तो कल्पना मात्र है । निर्गुण उपासक कहता था, सगुण तो माया से बन जाता है, वास्तव में परमात्मा निर्गुण ही है । उक्त प्रकार उनकी तर्कें चलती रहती थीं, किन्तु निर्णय कु़छ भी नहीं होता था । फिर उनको किसी सज्जन ने कहा - तुम संत दादूजी के पास जाओ, वे तुम्हारे को समझाकर तुम्हारा विवाद मिटा देंगे । 
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वे दोनों सांभर में दादूजी के पास आये और अपने विचार सुनाकर निर्णय करने की प्रार्थना की, दादूजी ने वहां बैठे हुये एक व्यक्ति को कहा - एक लम्बा बांस ले आओ । वहे ले आया तब दादूजी ने निर्गुण उपासक को कहा - सामने यह १२ खंभों की छतरी है, इसके बीच में खड़े होकर तथा अपनी मान्यता में मन को विलय करके इस बांस को घुमाओ । उसने अपनी निष्ठा में मन को विलय करके छतरी के बीच खड़े होकर बाँस को घुमाया किन्तु खम्भों से बाँस नहीं अटका । फिर वह आकर बाँस को पटक के बैठ गया ।
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तब दादूजी ने सगुण उपासक को कहा - तुम इस बाँस को अपनी निष्ठा में मन को लय कर मैदान में घुमाओ । वह बाँस को घुमाने उठा तो उसे चारों ओर भगवान् कृष्ण दिखाई दिये । तब वह बाँस पटक कर बैठ गया । उसे पू़छा - क्यों नहीं घुमाया ? वह बोला - चारों ओर भगवान् कृष्ण खड़े है घुमाने से उनके चोट लग जाय । अतः मैंने नहीं घुमाया ।
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फिर दोनों ने कहा - भगवन् हमारा निर्णय तो कर दीजिये । दादूजी ने कहा - तुम्हारा निर्णय तो हो गया है । उन्होंने कह - कैसे ? तब दादूजी ने उक्त २१ नं. की साखी सुनादी और कहा - तुम इस विवाद को छोड़ो । जैसी तुम्हारी निष्ठा है वैसे ही भजन करो । परमात्मा भक्त भावना के अनुसार ही भासते हैं । यह तुम दोनों ने प्रत्यक्ष देख लिया है । निर्गुण भक्त के खम्भे भी निराकार बन गये और सगुण भक्त के चौक में भी चारों ओर भगवान् खड़े हो गये । फिर विवाद को कहां अवकाश है । दोनों समझ कर अति हर्ष से अपने स्थान को चले गये ।

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