गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(च.दि.- ५/६)

卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
चतुर्थ दिन ~ 
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सखि ! एक को मल ही भाता, 
जहां तहां से मल ही लाता ।
भोंड सखी यह मैं पहचानी, 
नहिं, सखि ! यह पापी अज्ञानी ॥५॥
आं. वृ. - “एक को मल ही अच्छा लगता है और जहां तहां से मल ही लाता है । बता वह कौन है ?’’ 
वा. वृ. - “मल की गोली बना कर गुड़ाने वाला भोंड है ।’’ 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो महामूढ़ पापी मनुष्य है । ऐसे पापी मनुष्य का संग तू कदापि नहीं करना ।’’
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सखी ! बहुत इक साथ उपावें, 
किन्तु नहीं वे संग नशावें ।
समझ गई आमल इक राती, 
नहिं सखि ! भव तव मति कित ॥६॥
आं. वृ. - “बहुत - से एक साथ उत्पन्न होते हैं किन्तु नाश एक साथ नहीं होते । बता वे कौन हैं ?’’ 
वा. वृ. - “आमले । आमले के वृक्ष के फाल भादू मास के कृष्ण पक्ष में एक ही राषि में आता है । फिर वे टूटते शनै: शनै: हैं ।’’ 
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो सब संसार के प्राणी हैं ।’’ “मैं एक से बहुत हो जाऊँ ।’’ ऐसे ईश्‍वर के संकल्प से एक साथ ही उत्पन्न होते हैं किन्तु मरते एक साथ नहीं । तू ज्ञानियों का संग करेगी तब यह बात तुझे ठीक-ठाक समझ में आयेगी । 
(क्रमशः)

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