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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्थ दिन ~
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सखि ! एक को मल ही भाता,
जहां तहां से मल ही लाता ।
भोंड सखी यह मैं पहचानी,
नहिं, सखि ! यह पापी अज्ञानी ॥५॥
आं. वृ. - “एक को मल ही अच्छा लगता है और जहां तहां से मल ही लाता है । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “मल की गोली बना कर गुड़ाने वाला भोंड है ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो महामूढ़ पापी मनुष्य है । ऐसे पापी मनुष्य का संग तू कदापि नहीं करना ।’’
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सखी ! बहुत इक साथ उपावें,
किन्तु नहीं वे संग नशावें ।
समझ गई आमल इक राती,
नहिं सखि ! भव तव मति कित ॥६॥
आं. वृ. - “बहुत - से एक साथ उत्पन्न होते हैं किन्तु नाश एक साथ नहीं होते । बता वे कौन हैं ?’’
वा. वृ. - “आमले । आमले के वृक्ष के फाल भादू मास के कृष्ण पक्ष में एक ही राषि में आता है । फिर वे टूटते शनै: शनै: हैं ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो सब संसार के प्राणी हैं ।’’ “मैं एक से बहुत हो जाऊँ ।’’ ऐसे ईश्वर के संकल्प से एक साथ ही उत्पन्न होते हैं किन्तु मरते एक साथ नहीं । तू ज्ञानियों का संग करेगी तब यह बात तुझे ठीक-ठाक समझ में आयेगी ।
(क्रमशः)
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