गुरुवार, 31 अक्टूबर 2013

दादू नीका नाम है २/७

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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*दादू नीका नाम है, सो तू हिरदै राखि ।* 
*पाखंड प्रपंच दूर कर, सुन साधूजन की साखि ॥७॥* 
उक्त साखी के पाखंड प्रपंच दूर कर पर दृष्टांत का पद्य - 
कुश पत्ते चीन्हे ब्रह्मज्ञान, फल फूल न पाती बगुल ध्यान । 
नर निकट न राखे दंड धार, पर पुरुष न छुवे यही नार ॥ 
एक वैश्य की दुकान के सामने एक साधु आकर खड़ा था । वैश्य ने पू़छा - कहो महाराज ! कैसे खड़े हो? साधु ने कहा - दो चार दिन ठहरना चाहते हैं । अतः एकान्त स्थान की इच्छा है । वैश्य - मेरा एक नोहरा है । उसमें छप्पर पर कुशा पड़ी थी । उस का एक पत्ता उनकी जटा में फँस गया था । चार मील जाने पर उनका हाथ सहसा जटा पर गया तो उसमें उक्त कुशा का पत्ता आया । उसे देख कर संत पीछे लौटे और वैश्या की दुकान पर जाकर वैश्य को कहा - भाई ! तेरे छप्पर के ऊपर का डाभ का तृण मेरी जटा में फँसकर चला गया था । इस से मुझे चार मील से तुम्हार पत्ता देनेकी पीछे आना पड़ा है । 
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वैश्य ने सोचा - यह तो सर्वथा सच्चे साधु हैं । इन्हें अपने घर पर ही रख लें और अपने तीर्थयात्रा कर आवें । वैश्य पति पत्नी दो ही थे । साधु को घर के द्वार में रख कर यात्रा करने चला गया । पीछे से साधु का सेठानी से प्रेम हो गया । इससे अपने हाथ लगा उतना धन साथ लेकर वे दोनों घर छोड़ चले गये । वैश्य आया तो दोनों ही नहीं मिले तह उनकी खोज करने निकला । 
एक दिन एक तालाब पर एक अनाहारी सिद्ध संत के दर्शन करने यह वैश्य गया । उनके पास बड़ी भीड़ हो रही थी । लोगों से सुना ये खाते - पीते कु़छ नहीं हैं, निरन्तर आसन पर बैठे हुये भजन ही करते हैं । सायंकाल सब चले गये । साधु रात में यहाँ रहने से हमारे भजन में विघ्न होता है, यह कह कर उसे निकाल दिया । वैश्य तालाब तट के एक वृक्ष की ओट में छिपकर बैठ गया । 
आधी रात को साधु ने धूणी के नीचे की पृथ्वी खोदकर एक जाल निकाला और तालाब से मच्छियां पकड़ी । फिर उन को आग में सेक कर खाई और उनका कचरा आग में जलाकर प्रातःकाल भजनान्दी के समान बैठ गया । वैश्य प्रातः वहाँ से चल कर एक ग्राम में आया । दिन को तो इधर उधर फिरा सायंकाल ग्राम के बाहर एक शिला पर बैठे हुये साधु के पास गया किन्तु रात को इस साधु ने भी वैश्य को पास नहीं रहने दिया । तब वैश्य थोड़ी दूर जाकर छिपकर बैठ गया । 
आधी रात होते ही शिला वाले साधु ने शिला के नीचे की पृथ्वी खोद केर कु़छ शस्त्र निकाले और नगर में चोरी की । माल लाकर शिला के नीचे रखकर ऊपर रेती डालकर चौका लगा दिया । प्रातः वैश्य अपरिचित होने से उसे चोर समझकर राजपुरुष राजा के पास ले गये । इधर वैश्य की स्त्री और तृणाधारी उक्त साधु खाने पीने को पास नहीं रहा तो नाच गान का काम करने लगे । आज राजा के यहां ही उनका नाच गान था । 
वैश्य ने उन को पहचान लिया और वैश्य की स्त्री ने भी वैश्य को पहचान लिया । उनका नाच गान समाप्त होने पर राजा ने कहा - मांगो । स्त्री अपने पति की ओर अंगुलि करके बोली - इसको फाँसी दी जाय । राज पुरुषों ने उसे पकड़ तो रखा ही था । फाँसी की आज्ञा सुनकर वैश्य बोलने लाग -
एक तृणाधारी, सो तो लेगया साह की नारी । 
एक देखा अनाहारी, आधी रात मच्छी मारी । 
एक देखा राजा ढोर, पकड़े साह छोड़े चोर । 
राजा ने पूछा तू यह क्या बोलता है ? वैश्य - गाने वालों को प्रथम कैद कर लें तो बताऊं । 
राजा ने गाने वालों को पकड़ लिया । फिर वैश्य ने उक्त तीनों साधुओं की कथा सुना दी और चोथी बात राजा के लिये ही कही थी । वैश्य ने कहा - शिलावाले की शिला के नीचे की भूमि खुदवाकर देखें, उस के नीचे चोरी का माल मिले तो मेरी सभी बातें सत्य समझें । उस के कथनानुसार सह सत्य निकला तह दंभियों को दंड दिया । उक्त प्रकार पाखंड पूर्ण भजन का ढोंग करने से तो अन्त में दंड ही मिलता है, ओैर पाखंड प्रपंच का त्याग करके भजन करने से अन्त में भगवान ही मिलते हैं ।

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