मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

सद्गुरु शब्द मुख से कह्या.१.२९

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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/२९*
*सद्गुरु शब्द मुख से कह्या, क्या नेड़े क्या दूर ।* 
*दादू शिष श्रवणों सुन्या, सुमिरन लागा सूर ॥२९॥* 
दृष्टांत - रज्जब बखना आदि अर्थात् जिनने पास बैठकर दादूजी से उपदेश सुना उन सबके दादूजी के शब्द बाण नेड़े लगे थे । उनमें रज्जब और बखना का नाम दिया है । दोनों के कैसे लगे सो देखिये - रज्जब सांगानेर से विवाह के लिए बरात के साथ आमेर पहुंचे तब माबठा सरोवर पर रज्जब ने एक व्यक्ति से पू़छा - संत दादूजी यहां ही है क्या ? उसने कहा - यहां ही है और यह सामने आश्रम दीख रहा है उसमें विराजे हैं । 
रज्जब ने साथियों से कहा - दादूजी का दर्शन करके ही आगे चलेंगे । साथियों ने कहा - देर हो जायगी । दर्शन फिर कभी कर लेना अभी तो चलो । रज्जब ने नहीं माना । आश्रम में जाकर, ध्यानस्थ दादूजी का दर्शन किया । साथियों ने कहा - चलो दर्शन हो गये । रज्जब - दादूजी नेत्र खोलकर हमें देख लें तब चलेंगे । इतने में दादूजी के नेत्र खुले तो सामने एक सुन्दर सुडौल युवक वर के भेष में बैठा है । उसका मुखमंडल परमशांत और ज्ञान पिपासु ज्ञात होता है । अतः दादूजी उस पर कृपा दृष्टि डालकर हुये बोले - 
किया था इस काम को, सेवा कारण साज । 
दादू भूला बंदगी, सरे न एकहु काज ॥ 
"रज्जब तै गज्जब किया" साखी दादूजी की नहीं है । किसी ने बना दी है । दादूजी ने उक्त साखी ही कही थी । उक्त साखी रूप शब्द बाण रज्जब के पास में बैठे ही लगा था । साखी का अर्थ समझकर रज्जब ने अपना मौड़ उतारकर अपने छोटे भाई अज्जबअली के आगे रख कर कहा - मैं विवाह नहीं करुंगा । तुम इस मौड़ को शिर पर रखकर विवाह कर लो । रज्जबजी का विशेष विवरण दादूपंथ परिचय(दादूपंथ के इतिहास) के पर्व ४ अध्याय ९ में देखिये । यहाँ शब्द बाण लगने मात्र का ही परिचय दिया है । 
बखना के दादूजी का शब्द नेड़े(पास) में ही लगा था । सांभर निवास के समय एक दिन भ्रमण करते हुये दादूजी नारायण नगर में पधारे थे(रमते नगर नराने ॥२४॥ जनगोपाल वि. १२) साथ में कु़छ अपने शिष्य और भक्त भी थे । फाल्गुन मास था । मार्ग में बखना को अपने साथियों के साथ होली के गन्दे गीत गाते देखा । बखना के कंठ तथा शरीर दोनों ही सुन्दर थे । दादूजी ने सोचा यह सुन्दर कंठ से ईश्वर गुण गाये तो इसका कल्याण हो जाय और सुन्दर शरीर भी सफल हो जाय । अतः चलते चलते दादूजी बखना को बोले - अरे ! सुन्दर कंठ तथा शरीर से भगवान् के गुण गाओ, गन्दे गीत क्यों गाते हो । यह सुनकर बखना ने दादूजी की ओर देखा तह दादूजी ने शब्द बोला - 
मन मूरखा ! तैं यों ही जन्म गमायो, 
सांई केरी सेवा न कीन्ही, इहि कलि काहे को आयो ॥टेक॥ 
यह संपूर्ण भजन और इसका अर्थ तथा बखनाजी का विशेष विवरण दादूपथ परिचय पर्व ३ अध्याय ७ में देखें । यहां तो ग्रन्थ वृद्धि के भय से शब्दबाण लगने का संकेत ही लिखा है ।
साधू - हरियाणा प्रान्त के माँडोठी ग्राम में एक जाट जाति के साधुराम् नामक युवक ने बणजारों से दादूजी का नीचे लिखा यह पद सुना था -
अजहूँ न निकसे प्राण कठोर, 
दर्शन बिना बहुत दिन बीते, सुन्दर प्रीतम मोर ॥ 
यह पद दादूवाणी में राग गोड़ी का छठा और संख्या में भी छठा ही है और दो पाद का है । इससे साधुरामजी के यह शब्द दूर जाकर ही लगा था । उक्त भजन को सुनकर साधुराम प्रभु वियोग व्यथा से व्याकुल होने लगे और बणजारों से पू़छा - यह पद किनका है ? बणजारों ने कहा - दादूजी का है । दादूजी आजकल आमेर में रहते हैं । साधुराम दादूजी के पास आमेर आये और दादूजी के शिष्य होकर कृतार्थ हो गये । साधुरामजी का विशेष चरित्र दादूपंथ परिचय के पर्व ४ अध्याय १६ में देखें । यहाँ शब्द बाम का ही परिचय दिया गया है । 
तेजानन्दजी गुजरात देश के काठियावाड प्रदेश के नृसिंहपुरा ग्राम के रहने वाले वैश्य थे । उन्होंने बणजारों से दादूजी का - 
इनमें क्या लीजे क्या दीजे,जन्म अमोलक छीजे ॥ 
यह पद दूर से ही सुना था । अतः दूर जाकर शब्द बाण लगा था । 
यह पद दादूवाणी में ३९ संख्या का है और दो पाद का है । पद को सुनकर तेजानन्दजी सकुटुम्ब ही दादूजी के दर्शन करने आमेर आये और दादूजी के शिष्य होकर फिर दादूजी की आज्ञा से जोधपुर के पास गवा की पहा़डी पर जाकर भजन किया और उच्च कोटि के संत हो गये । तेजानन्दजी का विशेष चरित्र दादूपंथ परिचय के पर्व ४ अध्याय ८ में देखे । 
माता - माता का नाम रम्भा था । करांची से उत्तर पश्‍चिम की कूंट में ४० मील दूर ठठ्ठानगर में रहती थी और जाति से अरोड़ा क्षत्रिय थी । उसने बणजारों से दादूजी का यह पद सुना - 
सोई साधु शिरोमणी, गोविन्द गुण गावे । 
राम भजे विषया तजे, आपा न जनावे ॥ 
यह पद दादूवाणी में ३४७ का है और ४ पाद का है । अर्थ समझकर अति प्रभावित हुई । बणजारों से दादूजी का पता पू़छकर आमेर आई । दादूजी के शिष्य संतों से पू़छा तो ज्ञात हुआ दादूजी गुफा में है । माता दर्शन को व्याकुल थी । गुफा के द्वार पर आ खडी हुई । माता की स्थिति देखकर ईश्वर ने दादूजी को द्वार खोलने की प्रेरणा की । द्वार खोला तो देखा द्वार पर एक वृद्ध माता खड़ी है । दादूजी ने पू़छा - कहां से आई हो ? माता ने कहा - सिंध देश के ठठ्ठानगर से । दादूजी - इतनी दूर क्यों आई ? माता - संत दर्शन को । दादूजी - संत तो वहाँ भी होंगे । माता ने कहा - 
बिना मणी के सर्प ले जे लौढूँ तो लख्ख । 
जिसदे मस्तक मणि वसे, सानू तिसदी भुख्ख ॥ 
मैं आपको समणि समझकर आई हूं । दादूजी - तुमने बिना जाने ही कैसे समझा ? माता - मैंने आपका सोई साधु शिरोमणि पद बणजारों से सुना था । तब दादूजी ने कहा - 
जिनके मस्तक मणि बसे, सो सकल शिरोमणि अंग । 
जिनके मस्तक मणि नहीं, ते विष भरे भुवंग ॥ 
उक्त साखी से माता का समर्थन किया । फिर आमेर नगर में रहने की व्यवस्था करके रखवा दिया और माता की सिन्धी साखियों द्वारा उपदेश दिया । वे साखियां प्रसंगानुसार दादूवाणी में है । माता को संतोष हो गया तब पुनः अपने ग्राम को चली गई । रम्भामाता का विशेष विवरण दादूपथ परिचय के पर्व ४ अध्याय १३ में देखें । उक्त प्रकार - साधु, तेजानन्द और माता के शब्द बाण दूर जाकर ही लगे थे और बखना तथा रज्जब के नजदीक ही लगे थे ।

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