मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

दादू बाहर सारा देखिये.१/२५

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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/२५*
*दादू बाहर सारा देखिये, भीतर कीया चूर ।* 
*सद्गुरु शब्दों मारिया, जाणा न पावे दूर ॥२५॥* 
उक्त साखी पर तीन दृष्टांत देते हैं, वे अब नीचे दोहों द्वारा लिखे जाते हैं - 
सेवक नूते संत सब, जीमत उबरी रिद्ध । 
जग्गो जीमी ते सबहि, गुरु, दादू कहि विद्ध ॥१२ ॥ 
आमेर में एक दिन एक भक्त ने शिष्यों सहित दादूजी को अपने घर पधार कर भोजन करने का निमंत्रण दिया था । उसका विशेष प्रेम देख कर दादूजी ने मान लिया था । भोजन करके लौटने लगे तब भक्त ने कहा - संतों ने तो कु़छ भी नहीं जीमा, माल तो बहुत बच गया । दादूजी ने कहा - संत तो सब रुचि अनुसार जीम चुके हैं, बच गया तो औरों के काम आयेगा । 
भक्त - मैंने तो संतों के लिये ही बनवाया था । दादूजी - नगर में और संत मिल जायेंगे, उनको बुलाकर जिमा दो । भक्त - यह तो आप लोगों के ही लिया बनाया था । 
तब दादूजी ने जग्गाजी को कहा - आप भक्त की इच्छा पूर्ण कर दो । हम सब आश्रम पर जाते हैं । जग्गाजी उस का सब माल जीम गये । फिर तो भक्त ने आश्चर्य मानकर कहा - आपको धन्यवाद है । साखी में बाहर सारा देखिये, भीतर कीया चूर इस अंश पर ही दृष्टांत है अर्थात जग्गाजी का सारा शरीर बाहर से तो अल्पाहारी संत के समान दीख रहा था किन्तु दादूजी की बताई हुई भीतर की साधन शक्ति की विधी से भक्त का सारा, माल हजम कर गये थे । 
द्वितीय दृष्टांत - 
लूट लिये सब संत जन, चोरन कह्यो विचार । 
तुम मारण के हाथ तो, सद्गुरु काटे डार ॥१३॥ 
पहले एक प्रसिद्ध डाकू थे । एक समय एक अच्छे संत के दर्शन करने गये थे । उनके उपदेश से डाका छोड कर संत बन गये थे और उनके साथी भी उनके संग से संत बन गये थे । सभी एक आश्रम में रहकर भजन करते थे । एक दिन रात को अश्रम में चोर घुसे और समान बांधने लगे । जो उक्त प्रसिद्ध डाकू संत बन गये थे, वे बैठे भजन कर रहे थे और उन चोरों को देख भी रहे थे । 
एक चोर उनको पहचान कर साथियों से बोला - अरे ये तो जो हम लोगों में प्रधान माने जाते थे वे ही हैं । तब सब चोर सामान छोड़ कर उनके पास जा, प्रणाम करके बोले - आप तो पहले अपने से प्रतिकूलों के बात में ही सिर धड़ अलग कर देते थे किन्तु आज हम लोगों को समान बाँधते हुये देखकर भी कु़छ नहीं बोले । 
आप के हाथ तो वे ही हैं फिर क्या बात है कि आपने हम पर प्रहार नहीं किया ? संतजी ने कहा - भाइयों । तुम्हारे मारने के हाथ तो सद्गुरु ने अपने उपदेश रूप असि से काट डाले है और रक्षा करने वाले बना दिये हैं । यह सुन कर उन चोर ने भी चोरी छोड कर कमा कर खाना और भजन करने का प्रण कर लिया और वहां से कु़छ भी नहीं ले गये । 
तृतीय दृष्टांत - 
एक रैन की त्रास से, देख नृपति यह अंग । 
जिनके डर गुरु ज्ञान का, तिन घट किसा अनंग ॥१४॥ 
एक राजा सत्संगी था । संत उसके आते ही रहते थे । एक संत का उस पर अच्छा प्रभाव पडा । अतः उनको बहुत प्रार्थना कर के अपने यहां ही रख लिया और अपने समान ही उनको अच्छे भोजन जिमाता रहा । एक दिन राजा ने संतजी को कहा - जैसा मैं भोजन करता हूँ वैसा ही आप भोजन करते हैं । 
अतः मेरे समान ही आपके मन में काम वासना उठती होगी ? संत ने कहा - नहीं । राजा - कैसे नहीं उठती है ? यह बताने की कृपा करें । संत - आँखों से देखोगे या कान से सुनोगे ? राजा - आंखों से ही दिखाइये जिससे संशय को अवकाश ही नहीं रहे । संत - अच्छा दिखायेंगे । उसी दिन राजा और संत बग्गी में बैठ कर भ्रमण करने गये थे । मार्ग में एक युवक संत को दृष्टि में आया जो खुराक न मिलने से अतिकृश था । संत ने राजा को कहा - अपने प्रश्‍न के उत्तर के लिये इसे साथ ले चलो और खिला पिला कर इसे बलवान् बनाओ । 
जब हृष्ट - पुष्ट हो गया तब संत ने राजा से कहा - एक बड़े कमरे में संपूर्ण भोग सामग्री सजा दो फिर एक सुन्दर वैश्या को बुलाओ । सब तैयार होने पर उक्त हृष्ट - पृष्ट युवक और सामन्तों सहित राजा को साथ लेकर सायंकाल के समय उक्त कमरे के द्वार पर जाकर उस युवक से कहा - यह संपूर्ण सामग्री तथा यह सुन्दर वैश्या आपके लिये है । रात भर तुम इच्छानुसार भोग भोगो । प्रातः काल तुम को फाँसी पर लटकाया जायगा । इतना कह कर कमरा बन्द कर दिया । फिर उस युवक ने उस युवती वैश्या की और देखा भी नहीं और न खाने पीने आदि की वस्तुओं को ही छुआ । प्रातःकाल समान्तों सहित राजा और संतजी उक्त कमरा के द्वार पर जाकर कमरा का ताला खुलाकर वैश्या से पू़छ़ा - इसने तुझे कु़छ कहा क्या ? 
उसने कहा - कहना तो दूर रहा इसने तो मेरी और देखा भी नहीं तथा न खाया न पिया । यह तो जैसे अब बैठा है वैसे ही रात भर बैठा ही रहा । उसने पू़छा - यह युवती और ये संपूर्ण पदार्थ तेरे लिये ही तो रखे थे फिर भी तूने न तो युवती से सेवा ली और न खाया पिया, इसका क्या कारण है ? उसने कहा - मेरे को कहा था प्रातः काल तुझे फांसी पर लटकाया जायगा, इस चिन्ता से मुझे तो किसी की भी इच्छा नहीं हुई । 
तब संत ने कहा - राजन् ! आंखो से देख लिया । एक रात्रि के भय से इस युवक की कैसी स्थिती रही । काम भावना लेश मात्र भी नहीं उठी । फिर जिन के हृदय में निरंतर गुरु ज्ञान का भय रहता है, उनके हृदय में काम वासना कैसे प्रकट हो सकती है । राजा ने भी मान लिया ।

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