मंगलवार, 15 अक्टूबर 2013

दादू सद्गुरु मारे शब्द से.१/२६



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*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/२६*
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*दादू सद्गुरु मारे शब्द से, निरख निरख निज ठौर ।* 
*राम अकेला रह गया, चित्त न आवे और ॥२६॥* 
दृष्टांत - 
रहे शिष्य गुरु सेठ के सिष के अटके नैन । 
लखगुरु सुत की तिया से, कटु कहलाये बैन ॥१५॥ 
एक गुरु और एक शिष्य एक ग्राम में एक सेठ के आग्रह से चातुर्मास रहे थे । ठहरे तो ग्राम से बाहर एक बगीची में थे किन्तु भोजन करने सेठ के घर आया करते थे । एक दिन गुरुजी ने सेठ की पुत्र वधु और अपने शिष्य के नेत्र कामुक दृष्टि से अटके(मिले) हुये देखकर सोचा - यह इनका व्यवहार तो आगे गति हानिकर हो सकता है । अतः पहले ही इसमें विघ्न डालना अच्छा होगा । 
फिर सेठानी को एकान्त में समझाकर कहा - अपनी पुत्र वधु से मेरे शिष्य को कटु - वचन कहलाओ । सेठानी ने पुत्र वधू को समझा दिया । उसने दूसरे दिन शिष्य को गत दिन का सा व्यवहार देखकर उसे खूब डांटा । फिर वह भी समझ गया । उक्त प्रकार गुरुजन शिष्य के मन की कुभावना निकाल देते है । तब शिष्य के मन में केवल राम चिन्तन ही रहता है, अन्य भावना नहीं आती ।

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