शनिवार, 12 अक्टूबर 2013

दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या.१/३

🌷🙏🇮🇳 *#daduji* 🇮🇳🙏🌷
🌷🙏🇮🇳 *卐 सत्यराम सा 卐* 🇮🇳🙏🌷
https://www.facebook.com/DADUVANI
*"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"* 
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
*गुरुदेव का अंग १/३* 

*बालक दादू को गुरु प्राप्ति प्रसंग ~* 
*दादू गैब मांहि गुरुदेव मिल्या, पाया हम परसाद ।* 
*मस्तक मेरे कर धर्या, दीक्षा अगम अगाध ॥३॥* 
उक्त साखी की प्रसंग कथा का दोहा - 
बाल पने दर्शन दियो, भगवत बूढ़े होय । 
नगर अहमदाबाद में, दादू भज तू मोहि ॥५॥ 
*प्रसंग कथा -* 
११ वर्ष की आयु में दादूजी अपने साथी बालकों के साथ अहमदाबाद के कांकरिया तालाब पर खेल रहे थे । सायंकाल से कु़छ पहले वहाँ पर बालकों के सामने भगवान् वृद्ध ऋषि के रूप में प्रकट हुये । वे अन्य सब बालकों को तो भयंकर ज्ञात हुये अतः अन्य सब तो भयभीत होकर भाग गये । दादूजी को वे प्रिय लगे, अतः दादूजी पास आये और प्रणाम करके अपने कुड़ते की जेब में हाथ डाला तो एक पैसा मिला । वही वृद्ध(ब्रह्म) के भेंट किया । ऋषि रूप ब्रह्म ने कहा - इसकी जो वस्तु पहले मिले वही ले आओ । दादूजी को पहले पान की दुकान मिली अतः पान ही लाकर भगवान को दे दिया । भगवान् ने दादूजी को पान का प्रसाद भी दिया और कृपापूर्वक अपना वरद हस्त कमल भी दादूजी के मस्तक पर रक्खा । तब तत्काल ही दादूजी की दिव्य दृष्टि हो गई । वे भगवान् को पहचान गये और उक्त साखी द्वारा कहा - आज मुझे अकस्मात् ही वृद्ध(ब्रह्म) रूप गुरु प्राप्त हुये और अगम अगाध अपने स्वरूप सम्बन्ध की दीक्षा(उपदेश) भी दिया है । फिर भगवान् ने कहा - जो निर्गुण भक्ति रूप साधन तुम को बताया है, इसका राजस्थान में जाकर प्रचार करना । इतना कहकर वृद्ध(ब्रह्म) अन्तर्धान हो गये । 

दृष्टांत दोहा - 
निमत निगम आगम अगम, अनवांछित हो जाय । 
राघो रांग रसायनी, मिले गैब में आय ॥६॥ 
निगम(वेद) आगम(शास्त्र) से भी अगम अर्थात वेद, शास्त्र से भी जिसका ज्ञान न हो और इच्छा भी नहीं हो तो भी निमित्त पाकर अकस्मात ही कार्य हो जाता है, जैसे एक व्यक्ति ने रांगा से चांदी बनाने के लिए एक वन में भट्टी लगाकर रांगे को गलाय और उसमें रस डालने के लिए बूंटी देख रहा था कि गैब(अकस्मात) ही एक रांगा को चांदी बनाना रूप रसायन को जानने वाले संत वहाँ आ पहुँचे और उक्त व्यक्ति का विचार जान कर पास ही खडी हुई एक बूंटी का रस रांगा में डाल कर चांदी बना दी और चल दिये । उस व्यक्ति को तो संत आने का पता भी नहीं था कि संत आयेंगे और इच्छा भी नहीं थी कि कोई संत आकर बूटी बता दै । इसी प्रकार अकस्मात् ही दादूजी को वृद्ध(ब्रह्म) रूप गुरु की प्राप्ति हो गई और वे जीव को ब्रह्म ज्ञान कराने की उपाय निर्गुण उपासना बताकर वहाँ ही अन्तर्धान हो गये । 

द्वितीय दृष्टांत - 
फल टूट धर दिशि पड़यो, लियो पंगु मुख झेल । 
गैबी मारग बिन जतन, ताका अद्भुत खेल ॥७॥ 
एक पंगु व्यक्ति एक आम के वृक्ष के नीचे पड़ा था, अकस्मात वायु के वेग से आम का पका हुआ फल टूट कर उसके मुख पर आ पड़ा उक्त प्रकार बिना यत्न ही वस्तु प्राप्ति को गैबी मार्ग कहते हैं । उक्त गैबी मार्ग रूप लीला अद्भुत है अर्थात आश्चर्य जनक आनन्द प्रदाता है । उक्त प्रकार ही दादूजी को अकस्मात् ही वृद्ध(ब्रह्म) रूप गुरु से आश्चर्यजनक ब्रह्मानन्द प्राप्त हुआ था । 

तृतीय दृष्टांत - 
ज्यों गुरु दादू को मिले, त्यों नानक यदुराय । 
कान्हा को गैब हि मिले, नृप रहुगण गुरु पाय ॥८॥ 
जैसे दादूजी को अकस्मात् गुरु की प्राप्ति हुई थी, वैसे ही गुरु नानकजी को अकस्मात् ही गुरु मिले थे । नानकजी के पिता ने नानकजी को कु़छ रुपये देकर कहा - इनका कु़छ माल खरीद लाओ । नानकजी की मार्ग में कु़छ संत मिल गये और उन्ही संतों में भगवत् रूप गुरु भी अकस्मात् ही मिल गये । उनके उपदेश से प्रभावित होकर वे सब रुपये संतों को ही खिला दिये । घर आये तब पिता ने पू़छा - क्या सौदा किया ? नानकजी ने कहा - संतों को खिला दिये । इससे अच्छा सौदा और कौनसा हो सकता है ? इससे पिता तो कु़छ रुष्ट हुये किंतु नानकजी का तो जीवन बदल ही गया । फिर दादूजी जैसे ७ वर्ष घर में रहे थे, वैसे नानकजी भी घर में रहे और सं. १५५४ में घर से निकल कर भ्रमण करने लगे थे । 

यदुराय - यदु राजा को वन में भ्रमण करते समय अवधूत दत्तात्रेय अकस्मात् ही मिले थे । दत्तात्रेय को निशिन्त स्थूलकाय देख कर राजा ने कहा - त्रिताप से सब जगत् जल रहा है किन्तु आप तो *ज्यों गयंद गंगोदक मांहीं, सब दाझें तु दाझो नाहीं ।* अर्थात् वनाग्नि से बन के सब जीव संतप्त होते हैं । किन्तु गंगा के प्रवाह में खड़ा हाथी वनाग्नि से संतप्त नहीं होता । कारण गंगा का जल बहता रहता है इससे गर्म नहीं होता । वैसे ही आप भी त्रिताप से संतप्त नहीं होते । इसमें क्या कारण है ? दत्तात्रेयजी ने कहा - में चोबीस गुरुओं के ज्ञान के कारण त्रिताप से संतप्त नहीं होता । फिर यदु को भी दत्तात्रेयजी ने उपदेश देकर कृत - कृत्य कर दिया था । अतः यदु को भी गुरु दत्तात्रेय वन में अकस्मात् ही मिले थे । 

कान्हा भक्त को भी अकस्मात् गुरुदेन की प्राप्ति हुई थी । उसे पता भी नहीं था कि आज गुरुदेव मिलेंगे किन्तु अकस्मात् गुरु मिल गये और उपदेश देकर कान्हा को कृत - कृत्य कर दिया था । कान्हाजी कान्हा लाड़ला के नाम से प्रधान भक्त हुये हैं । कान्हा भाना की सेवा करते थे किन्तु गुरु के उपदेश से प्रभावित होकर निरंतर भजन ही करने लगे थे और परम प्रेम से भजन करने के कारण भगवान को बहुत प्रिय होने ले उनको कान्हा लाड़ला के नाम से पुकारने लगे थे । 

रहूगण सिन्धु सौवीर देशों का राजा था । वह एक समय तत्व ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा से कपिल मुनि के आश्रम को जा रहा था । इक्षुमति नदी के तीर पर पालकी उठाने वालों में एक कहार की कमी हो गई । दैवयोग से वहां अकस्मात् ही महात्मा जड़भरत आ पहुँचे । कहारों ने उनको पकड़ कर अपने साथ पालकी में जोत लिया । वे जीवों की रक्षा के लिये पृथ्वी को देख कर चींटी आदि को बचाकर चलते थे इससे पालकी हिलती थी । पालकी बारम्बार हिलने लगी तब राजा जड़भरत को भला-बुरा कहने लगा । जड़भरत उसकी बातों को बड़ी शान्ति से सुनते रहे । अन्त में उन्होंने राजा की बातों का ज्ञानपूर्वक उत्तर दिया । राजा जिज्ञासु तो था ही । उनकी बातों को सुनकर पहचान गया कि ये तो कोई महात्मा है । अतः वह अपने अभिमान को त्याग के पालकी से उत्तर कर जड़भरत के चरणों में आ पड़ा और क्षमा माँगी तब अपने स्थान को ही लौट गया । इसी प्रकार दादूजी को अकस्मात् ही वृद्ध(ब्रह्म) रूप गुरु मिले थे । 
(क्रमशः)

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें