卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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चतुर्थ दिन ~
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सखी ! एक सब ऊपर देखा,
उस पर कोई भी नहिं पेखा ।
चोटी है यह मैंने जानी,
नहिं सखि ! ईश कहत हैं ज्ञानी ॥९॥
आं. वृ. - “एक सब के ऊपर है, उसके ऊपर कोई नहीं । बता वह कौन है ?’’
वा. वृ. - “चोटी है ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो ईश्वर है । ज्ञानी जन सदा से कहते आये हैं कि ईश्वर हो सर्व शिरोमणि हैं । तू भी उन सर्वनियन्ता भगवान् का भजन किया कर । भजन करने वाले को वे अपना सर्वस्व दे देते हैं ।’’
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दीपक दोय सखी अस देखे,
वायु आदि से बुझत न पेखे ।
समझ गई सजनी मणि केरे,
नहिं, सहचरी नयन हैं तेरे ॥१०॥
आं. वृ. - “मैंने दो दीपक ऐसे देखे हैं जो वायु और सर्पणी आदि से बुझते नहीं । बता वे कौन है ?’’
वा. वृ. - “मणि दीपक देखे होंगे ।’’
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! वे तो तेरे ही नेत्र हैं । तू इन नेत्रों का परम लाभ संत और भगवत् दर्शन ही समझ और संतों के चरणों में जाकर उनसे भगवत् दर्शन होने का साधन पूछ कर तथा उनके कथानानुसार साधन द्वारा भगवत् दर्शन कर के अपने इन नेत्रों को सफल बना ।
(क्रमशः)
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