*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” ७/८)*
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*श्री दादू जी का चोर को समझाना ~ शिष्य बन गया*
दीनदयालु कहें - सुन मूरख,
बेग हु जाउ नहीं सुधि पाई ।
जो पहरावत अन्य जगें नर,
मारत तोहि, हमें दुखदाई ।
तस्कर शोच भयो मन भीतर,
संतन मोर शरीर बचाई ।
ल्याय प्रसाद पर्यो चरणां परि,
चोरिहु छोड़ हरी गुण गाई ॥७॥
दयालु संत ने कहा - अरे मूर्ख ! शीध्रता से भाग जा, नहीं तो ये लोग तुम्हें पकड़ लेंगे, और मारेंगे पीटेंगे । तब हमें बहुत दु:ख होगा । चोर ने सोचा - संत कितने दयालु हैं, मुझे बचाना चाहते है । नहीं तो हल्ला मचा कर मुझे पकड़वा देते । यह सोचते हुये वह चुपके से चला गया । संत दर्शन से, और उनकी दयालुता से प्रभावित होकर चोर का मन शुद्ध हो गया । उसने सदा के लिये चोरी छोड़ दी, और प्रात: होने पर प्रसाद लेकर श्री दादूजी के चरणों में उपस्थित हुआ । शिष्य बनकर ‘श्यामसिंह चौहान’ से श्यामदास बन गया । गुरु कृपा से हरि गुण गाने लगा ॥७॥
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*सांभर में लोग दर्शनों की इच्छा*
ओपमा छाय रही पुर भीतर,
सेवक लौग सबै गुरु सेवै ।
नैन निहार सदा पद पंकज,
दर्शन पाय रु भोजन लेवै ।
वासर ही पुर, रैन सरोवर,
स्वामि जपैं निज जाप अभेवै ।
याँ विधि दादु रहे पुर साँभर,
दर्शन तें सब को सुख देवै ॥८॥
श्री दादूजी की शोभा प्रतिष्ठा नगर में छाई हुई थी । सभी सज्जन गुरुदेव के लिये उत्सुक रहते थे । नित्य गुरुचरणों के दर्शन - उपरांत ही भोजन करते थे । स्वामीजी दिन में कथा सत्संग करके रात्रि समय ध्यान लगाने सरोवर मध्य शिला पर पधार जाते । इस तरह दर्शन सत्संग से सबको सुख देते हुये स्वामी जी सांभर मे विराज रहे थे ॥८॥
(क्रमशः)
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