शनिवार, 2 नवंबर 2013

= प. त./७-८ =

*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्‍वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” ७/८)* 
*श्री दादू जी का चोर को समझाना ~ शिष्य बन गया* 
दीनदयालु कहें - सुन मूरख, 
बेग हु जाउ नहीं सुधि पाई । 
जो पहरावत अन्य जगें नर, 
मारत तोहि, हमें दुखदाई । 
तस्कर शोच भयो मन भीतर, 
संतन मोर शरीर बचाई । 
ल्याय प्रसाद पर्यो चरणां परि, 
चोरिहु छोड़ हरी गुण गाई ॥७॥ 
दयालु संत ने कहा - अरे मूर्ख ! शीध्रता से भाग जा, नहीं तो ये लोग तुम्हें पकड़ लेंगे, और मारेंगे पीटेंगे । तब हमें बहुत दु:ख होगा । चोर ने सोचा - संत कितने दयालु हैं, मुझे बचाना चाहते है । नहीं तो हल्ला मचा कर मुझे पकड़वा देते । यह सोचते हुये वह चुपके से चला गया । संत दर्शन से, और उनकी दयालुता से प्रभावित होकर चोर का मन शुद्ध हो गया । उसने सदा के लिये चोरी छोड़ दी, और प्रात: होने पर प्रसाद लेकर श्री दादूजी के चरणों में उपस्थित हुआ । शिष्य बनकर ‘श्यामसिंह चौहान’ से श्यामदास बन गया । गुरु कृपा से हरि गुण गाने लगा ॥७॥ 
*सांभर में लोग दर्शनों की इच्छा* 
ओपमा छाय रही पुर भीतर, 
सेवक लौग सबै गुरु सेवै । 
नैन निहार सदा पद पंकज, 
दर्शन पाय रु भोजन लेवै । 
वासर ही पुर, रैन सरोवर, 
स्वामि जपैं निज जाप अभेवै । 
याँ विधि दादु रहे पुर साँभर, 
दर्शन तें सब को सुख देवै ॥८॥ 
श्री दादूजी की शोभा प्रतिष्ठा नगर में छाई हुई थी । सभी सज्जन गुरुदेव के लिये उत्सुक रहते थे । नित्य गुरुचरणों के दर्शन - उपरांत ही भोजन करते थे । स्वामीजी दिन में कथा सत्संग करके रात्रि समय ध्यान लगाने सरोवर मध्य शिला पर पधार जाते । इस तरह दर्शन सत्संग से सबको सुख देते हुये स्वामी जी सांभर मे विराज रहे थे ॥८॥ 
(क्रमशः)

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