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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*स्मरण का अंग २/३६.५६*
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*जतन करे नहिं जीव का, तन मन पवनां फेरि ।*
*दादू महँगे मोल का, दो दोवटी इक सेर ॥३८॥*
साखी के उत्तरार्ध पर दृष्टांत -
चार हजार कतेब के, चार वचन इहिं ठौर ।
रिजिकखायमत, मुलकतज छानेकर, शिर और ॥८॥
एक संत ने एक प्रमादी मनुष्य को कहा - भाई ! तुम परमात्मा की दी हुई दो धोती पहनते हो, धोती सभी वस्त्रों का उप लक्षण है और प्रभु का दिया हुआ सेर अन्न खाते हो तो अपने तन, मन, और प्राणों को संसार से बदल कर परमात्मा परायण करो और नहीं करते हो तो १. प्रभु की दी हुई जीविका रूप अन्न - वस्त्र मत ग्रहण करो । २. प्रभु के देश में मत रहो । ३. प्रभु प्राप्ति का साधन गुप्त से ही करो । ४. प्रकट रूप में करना ही पड़े तो वह दूसरे से कराकर उसका यश उसे दिला दो । चार हजार किताब(कुरान) में उक्त चार वचन ही इस विषय पर मुख्य रूप से कहे गये हैं ।
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*दादू नीकी बरियां आय कर, राम जप लीन्हा ।*
*आतम साधन शोधिकर, कारज भल कीन्हा ॥५६॥*
प्रसंग कथा - सीकरी निवास के ३८ वें दिन अकबर बादशाह ने दादूजी से कहा - भगवन् ! आप जैसे महात्मा, ऋषि, मुनि तो सतयुग में हुआ करते हैं, कलियुग में नहीं, फिर आप इस युग में कैसे पधारे हैं ? अकबर का यह वचन सुनकर दादूजी ने उक्त साखी कही थी ।
(क्रमशः)
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