शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

= शूरातन का अंग २४ =(३५/३६)

॥ दादूराम सत्यराम ॥
*"श्री दादूदयाल वाणी(आत्म-दर्शन)"*
टीका ~ महामण्डलेश्वर ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामी भूरादास जी
साभार विद्युत संस्करण ~ गुरुवर्य महामंडलेश्वर संत श्री १०८ स्वामी क्षमाराम जी महाराज
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*शूरातन का अंग २४*
*काया कबज कमान कर, सार शब्द कर तीर ।*
*दादू यहु सर सांध कर, मारै मोटे मीर ॥३५॥*
टीका ~ हे जिज्ञासु ! स्थूल शरीर को कसौटी द्वारा कमान की तरह बना ले । गुरुदेव का तत्त्वज्ञान रूपी शब्द ही मानो इसके ऊपर तीर है । इस बाण को लय वृत्ति द्वारा धारण करके काम आदि महाशत्रुओं को मार कर आत्माकार वृत्ति बना ले और स्वस्वरूप में स्थिर हो जा ॥३५॥
प्रणवो धनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते । 
अप्रमत्तेन वंधव्यं शरवत् तन्मयो भवेत् ॥ 
(मुण्डकोपनिषद्) 
(उपनिषदों में वर्णित प्रणत ओंकार शब्द धनुष पर आत्मा की उपासना रूप बाण चढ़ावे और अक्षर ब्रह्म को लक्ष्य मानकर साधना में प्रमाद रहित होकर उसे वेधन करने में तल्लीन हो जाना चाहिए ।)
बेधे बाणी बाण कर, धनुष ध्यान कसीस । 
‘जगन्नाथ’ सत सेल सूं, मारे पंच पचीस ॥
सिरै नाम समसेर ले, प्राण पुरुष जब हाथ । 
‘जगन्नाथ’ बंका बली, मुरै मोह सब साथ ॥
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*काया कठिन कमान है, खांचै विरला कोइ ।*
*मारै पंचों मृगला, दादू शूरा सोइ ॥३६॥*
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! यह स्थूल शरीर कठीन कमान है अर्थात् इसको विषय - वासनाओं की तरफ से हटाने वाला कोई विरला ही साधक पुरुष है । वही सच्चा शूरवीर साधक पांच ज्ञानेन्द्रिय रूपी अथवा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद इन पांचों मृगों को गुरुदेव के तत्त्वज्ञान रूप शब्द - बाण से मारता है अर्थांत् निर्जीव कर देता है ॥३६॥
ज्ञान - खंग दृढं कृत्वा, वैराग्यं दृढ चर्मणी । 
दुर्लभं योग - संग्रामं, कोटि - मध्ये धनुर्धरः ॥
यथासंभव - शास्त्रार्थो लोकाचारानुवृत्तिमान् । 
युद्धयते ताहशैश्चैव भक्तः शूरः स उच्यते ॥
(शास्त्रानुसार जो नर काम - क्रोधादि शत्रुओं से युद्ध करता हुआ लोक व्यवहार में यथासंभव संयमी जीवन व्यतीत करता है, वही शूरवीर कहलाता है ।)
(क्रमशः)

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