रविवार, 17 नवंबर 2013

= ७६ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
सुत वित मांगैं बावरे, साहिब सी निधि मेलि ।
दादू वे निष्फल गये, जैसे नागर बेलि ॥
फल कारण सेवा करै, जाचै त्रिभुवन राव ।
दादू सो सेवक नहीं, खेलै अपना दाव ॥
सहकामी सेवा करैं, मागैं मुग्ध गँवार ।
दादू ऐसे बहुत हैं, फल के भूँचनहार ॥
टीका ~ निरंजन राम जैसी अपूर्व सम्पत्ति को त्याग कर जो मूर्ख लोग अपने साधन का फल पुत्र और कनकादिक धन ही माँगते हैं, वे लोग जैसे नागर - बेलि फल से वँचित रहती है, वैसे ही आत्म - ज्ञान फल से वँचित रहकर लौकिक अभिलाषा पूर्ति में ही अपना जीवन खो देते हैं ।
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हे जिज्ञासुओं ! संसारीजन अन्तर्यामी त्रिभुवनपति परमेश्वर से भोग्य पदार्थ एवं स्वर्ग आदि लोकों की याचना करते हैं, परन्तु ऐसे पुरुष प्रभु के पतिव्रत - धर्म धारण करने वाले सेवक नहीं हैं । वे स्वार्थपूर्ति हेतु भक्ति का ढोंग करते हैं । ऐसे माया में आसक्ति रखने वाले मूर्ख संसारीजन कहिए, निषिद्ध भोगों में फँसे हुए नाना प्रकार के सकाम कर्म करते रहते हैं । अतः वे सब मोक्ष रूपी फल से निष्फल ही रहते हैं ॥९०/९२॥ 
(श्री दादूवाणी ~ निष्कर्म पतिव्रता का अंग) 
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साभार ~ Bhakti 
एक अमीर आदमी विभिन्न मंदिरों में जनकल्याणकारी कार्यो के लिए धन देता था। विभिन्न उत्सवों व त्योहारों पर भी वह दिल खोलकर खर्च करता। शहर के लगभग सभी मंदिर उसके दिए दान से उपकृत थे। इसीलिए लोग उसे काफी इज्जत देते थे। 
उस संपन्न व्यक्ति ने एक नियम बना रखा था कि वह प्रतिदिन मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाता था। दूसरी ओर एक निर्धन व्यक्ति था नित्य तेल का दीपक जलाकर एक अंधेरी गली में रख देता था जिससे लोगों को आने-जाने में असुविधा न हो। संयोग से दोनों की मृत्यु एक ही दिन हुई। दोनों यमराज के पास साथ-साथ पहुंचे। यमराज ने दोनों से उनके द्वारा किए गए कार्यो का लेखा-जोखा पूछा। 
सारी बात सुनकर यमराज ने धनिक को निम्न श्रेणी और निर्धन को उच्च श्रेणी की सुख-सुविधाएं दीं। धनिक ने क्रोधित होकर पूछा- यह भेदभाव क्यों? जबकि मैंने आजीवन भगवान के मंदिर में शुद्ध घी का दीपक जलाया और इसने तेल का दीपक रखा और वह भी अंधेरी गली में, न कि भगवान के समक्ष? तब यमराज ने समझाया पुण्य की महत्ता मूल्य के आधार पर नहीं, कर्म की उपयोगिता के आधार पर होती है। मंदिर तो पहले से ही प्रकाशयुक्त था। इस निर्धन ने ऐसे स्थान पर दीपक जलाकर रखा, जिसका लाभ अंधेरे में जाने वाले लोगों को मिला। उपयोगिता इसके दीपक की अधिक रही। 
तुमने तो अपना परलोक सुधारने के स्वार्थ से दीपक जलाया था। सार यह है कि ईश्वर के प्रति स्वहितार्थ प्रदर्शित भक्ति की अपेक्षा परहितार्थ कार्य करना अधिक पुण्यदायी होता है और ऐसा करने वाला ही सही मायनों में पुण्यात्मा होता है क्योंकि ‘स्व’ से ‘पर’ सदा वंदनीय होता है।

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