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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*परिचय का अंग ४/१६८*
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*नख शिख सब सुमरिण करे, ऐसा कहिये जाप ।*
*अंतर विकसे आत्मा, तब दादू प्रकटे आप ॥१६८॥*
प्रसंग दृष्टांत -
वैरागी लख नाम ले, कह मैं प्रकट न देश ।
तुम सु प्रकट सब लोक में, कहा दादू उपदेश ॥१२॥
एक समय एक बहुत मोटे काष्ठ के माणियों की बनी हुई और बहुत लम्बी मालावाले रामदास नामक वैरागी साधु आमेर में आये थे । वे अपनी माला को बैल पर लाद कर ही इधर - उधर ले जाते थे । उसके लिये बैल साथ ही रखते थे । आमेर में एक कूप पर ठहरे थे ।
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कूप की चाकली(भूंणी) पर माला डाल कर कूप में लटका कर फिर एक - एक मणियां पकड़ पकड़ कर खेंचते थे और प्रति मणियां के साथ सीताराम बोलते थे । उनके दर्शन करने बहुत जनता आती थी । उनको महामालावाले रामदासजी नाम से माला फेरना रूप साधन समाप्त होता था तब भक्तों से वार्तालाप भी करते थे । एक दिन एक भक्त ने कहा - यहां दादूजी बहुत उच्च कोटि के संत विराजते है । रामदासजी दादूजी का नाम सुनकर अति प्रसन्न हुये । कारण उन्होंने दादूजी की महिमा जहां तहां बहुत सुनी थी ।
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फिर एक दिन राम दासजी सत्संग समाप्ति के समय पर दादूजी के पास गये और प्रणाम करके बैठ गये फिर बोले - भगवन् ! मैं एक लाख नाम प्रतिदिन जपता हूं और माला भी बहुत बड़ी रखता हूं । जनता भी मेरे दर्शन को बहुत आती है फिर भी मुझे आपके समान न तो शांति है और न आपके समान मेरी ख्याति ही है, आपके पास तो माला भी नहीं है फिर भी आपकी ख्याति बहुत है ।
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मैंने अनेक स्थानों में आपकी महान् महिमा सुनी है और आज भाग्यवश आपके दर्शन भी कर रहा हूं । बताइये मुझे आपके समान शांति और ख्याति क्यों नहीं प्राप्त हो रही है ? तब दादूजी ने उक्त १६८ की साखी सुनाकर समझाया था । अतः इस साखी का प्रसंग भी उक्त है और दृष्टांत नख से शिखा पर्यन्त रोम रोम से जब जाप होता है तब अतःकरण संशय, विपर्य रहित होकर खिलता है ।
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इस स्थिति का स्मरण होने पर शांति और ख्याति अपने आप ही हो जाती है । फिर दादूजी ने अन्य साखियों के द्वारा भी उपदेश दिया । पश्चात् रामदास दादूजी के ही शिष्य होकर भजन करने लगे । उक्त माला को छोड दिया । वे दादूजी के सौ शिष्यों में हैं । इनका विशेष विवरण दादूपंथ परिचय के पर्व ४ अध्याय ४ में देखें ।
(क्रमशः)
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