卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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षष्ठम दिन ~
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कवि -
वाह्य वृत्ति षष्ठे दिवस, निज हिय में हर्षाय ।
आई आंतर पास में, बैठी शीश नमाय ॥१॥
आंतर लखकर वाह्य को, सुमिर राम सह प्रेम ।
देने लागी सीख शुभ, जिससे होवे क्षेम ॥२॥
सखी ! एक नर ऐसा आता,
बड़ी-बड़ी सो बात बनाता ।
है धनवान सेठ सखि ! जानी,
नहिं यह तो है दंभ सयानी ॥३॥
आं. वृ. - “एक नर आता है और बड़ी-बड़ी बातें बनाता है । बता वह कौन है ?”
वां. वृ. - “वह तो धनी सेठ होगा ।”
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! वह तो दंभ है । पाखंड जिसके स्रदय में होता है, वह व्यर्थ ही अपनी बड़ाई के लिये बड़ी-बड़ी बातें सुनाता है किन्तु उसका परिणाम अच्छा नहीं होता । तू कभी भी दंभ नहीं करना । कुछ लोक लोकों को दिखाने के लिए ही अच्छे काम करते हैं किन्तु ऐसा करना ठीक नहीं । भजनादिक अच्छे कार्य तो कल्याण के लिये ही करने चाहिये । सांसारिक प्राणियों के आगे तो पाखंड कुछ दिन चल भी सकता है किन्तु स्रदयस्थ भगवान् तो नहीं ठगा जा सकता । इसलिये पाखंड नहीं करना चाहिये ।”
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सखी ! एक बलशाली भारी,
निज बल से षयलोक पछारी ।
समझी सखी ! पेट यह पापी,
नहिं, सजनी ! यह काम प्रतापी ॥४॥
आं. वृ. - “एक बड़ा बलवान् है । उसने अपने बल से तीनों लोक जीत लिये हैं । बता वह कौन है ।”
वां. वृ. - “पेट है ।”
आं. वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो महाप्रतापी काम है । काम ने सभी को जीत लिया है । तू भी सावधान रहना । कामाधीन रहेगी तो राम नहीं मिलेंगे ।”
(क्रमशः)
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