शनिवार, 23 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(ष.दि.- १९/२०)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
षष्ठम दिन ~ 
चक्र तुल्य फिरता ही जावे, 
अपना माल खर्च के आवे । 
सखी ! जुलाहों तानों बेजो, 
है मन मूढ़, समय खोवे जो ॥१९॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक चक्र के समान फिरता ही रहता है और अपने पास का धन भी खर्च कर देता है। बता वह कौन है?” 
वां. वृ. - ‘‘जुलाहा और ताना बेजा है। जुलाहा जब ताना बेजा करता है तब इधर-उधर फिरता है और सूत खर्च होने पर बैठ जाता है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो मूर्ख मन है। जो हरि भजन बिना समय को व्यर्थ खोता है। तू तो अपने मन को एकाग्र करके भगवत् भजन में ही लगाना, इसमें प्रमाद कभी न करना।”
इक पर इक गिरता ही जावे, 
अडिग सहे वह नहिं घबरावे । 
पर्वत पर वर्षा मैं जानी, 
सज्जन पर कटु बचन सयानी ॥२०॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक पर एक पड़ता ही जाता है और वह भी उसे सहन करता जाता है। बता वे कौन हैं ?” 
वां. वृ. - ‘‘पर्वत पर वर्षा पड़ती है और पर्वत उसे सहन करता जाता है।” 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! संत पर दुर्जनों के कटु बचन पड़ते रहते हैं किन्तु संत उन्हें सहन करते रहते हैं। कभी भी कटु बचनों से व्याकुल नहीं होते। तू भी कटु बचन सहन करने का स्वभाव बना। ऐसा करने से तेरे साधन में कभी भी विघ्न नहीं पड़ सकेगा।”
(क्रमशः) 

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