शनिवार, 23 नवंबर 2013

आदि अन्त आगे रहै ४/२५२

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
*परिचय का अंग ४/२५२*
*आदि अन्त आगे रहै, एक अनुपम देव ।*
*निराकार निज निर्मला, कोई न जाने भेव ॥२५२॥* 
दृष्टांत - 
रामचंद्र बालक थको, काकभुशंडि गह सीत(थ) । 
भाज्यो जहँ तहँ लार कर, पार न है भयभीत ॥२१॥ 
रामचन्द्रजी जब बालक थे । तब काकभुशंडि ने सोचा - यह रामचन्द्र मेरे इष्टदेवरूप राम ही हैं अथवा साधारण बालक हैं । इनकी परीक्षा करनी चाहिये । फिर एक दिन राजा दशरथ के अन्तःपुर में पहुँच गये और मालपुड़ा का टुकड़ा छीनकर उड़े तथा पीछे देखा तो रामचन्द्रजी का हाथ उनको पकड़ने के लिये पीछे आता देखा तह वे अति वेग से दौड़े किन्तु वे जहां भी गये वहां रामचन्द्रजी का हाथ उनके पीछे ही रहा । तब भयभीत होकर रामचन्द्रजी की स्तुति करने लगे । आप तो साक्षात् सबमें रमने वाले राम ही हैं और सबके आदि, अन्त, आगे, पीछे रहते हैं । आप का पार कोई भी नहीं पा सकता । आप ही निराकार निर्मल ब्रह्म हैं । मुझे क्षमा कीजिये । फिर हाथ अदृश्य हो गया । 
(क्रमशः)

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