रविवार, 3 नवंबर 2013

श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता(च.दि.- ११/१२)


卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥ 
चतुर्थ दिन ~ 
सखी ! एक पर सब ही रीझे, 
हो अनुकूल यदपि कोउ खीजे । 
समझ गई मैं सुन्दर नारी, नहिं, 
सेवा सब ही को प्यारी ॥११॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक पर सभी प्रसन्न रहते हैं। कभी कोई रुष्ट हो जाय तो भी शीघ्र ही अनुकूल हो जाता है। बता वह कौन है?’’ 
वा. वृ. ‘‘सुन्दर स्त्री है।’’ 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! यह तो सबको प्रिय लगने वाली सेवा है। तू सज्जनों की सेवा में प्रमाद कभी भी न करना। दीन दुखित, वृद्ध और संतों की सेवा करने से वे शुभाशीर्वाद देते हैं! उससे प्राणी की परम उन्नति होती है। विशेष कर के भगवान् के भक्त संतों की सेवा में मन लगाया कर, तभी तुझे शीघ्र भगवान् मिलेंगे। 
सखी ! एक काटत सहकारी, 
बात हिताहित नांहि विचारी ।
सजनी! दॉंत जीभ मैं जानी, 
नहिं, सखि! दुर्जन मित्र बखानी ॥१२॥ 
आं. वृ. - ‘‘एक अपने ही सहायक को काटता है। हित अनहित का भी विचार नहीं करता। बता वह कौन है?’’ 
वा. वृ. - ‘‘दॉंत हैं। अपनी हितकारिणी जिह्वा को काट डालते हैं।’’ 
आं. वृ. - ‘‘नहिं, सखि ! वह तो दुर्जन है। अपने मित्र की भी जड़ काटता रहता है। तू ऐसे दुर्जनों के पास कभी नहीं बैठना, उनके पास बैठने से वैसा ही मन होकर, जीवन निष्फल हो जात है। 
(क्रमशः)

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