रविवार, 3 नवंबर 2013

ब्रह्मभक्ति जब ऊपजे २/६४

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साभार ~ *"श्री दादूवाणी प्रवचन पद्धति"*
टीका ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*स्मरण का अंग २/६४*
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*ब्रह्मभक्ति जब ऊपजे, तब मायाभक्ति विलाय ।* 
*दादू निर्मल मल गया, ज्यों रवि तिमिर नशाय ॥६४॥* 
साखी के पूर्वार्ध पर दृष्टांत - 
लक्ष्मी विष्णु सु भक्त पै, ले गई भेंट बनाय ।
वह अचाह ताड़त भया, आई मुँह लबकाय ॥११॥
एक दिन भगवान् विष्णु और लक्ष्मी विनोद रूप बातें कर रहे थे । बातों ही बातों में लक्ष्मी ने कहा - मेरे भक्त श्रेष्ठ होते हैं । विष्णु बोले - मेरे निष्कामी भक्त तुम्हारे भक्तों से भी श्रेष्ठ होते हैं । लक्ष्मी - परीक्षा कर लो । विष्णु - कर लो । 
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फिर विष्णु एक संत के रूप में दिन के दश बजे के लगभग एक सेठ की दुकान के समाने आकर खड़े हो गये । सेठ ने पू़छा - क्यों खड़े हो ? संत - आज देवशयनी ११ है, चातुर्मास लग गया है । अतः हम चार मास एक स्थान पर रहते हैं । कोई एकान्त स्थान मिल जाय तो उसमें आसन लगा लें । सेठ - मेरे नोहरे में एक कमरा है वह देख लें । दिखाने पर संत ने कहा - ठीक है किन्तु चार मास तक हम आसन नहीं उठायेंगे । सेठ - आप आराम से रहें हमें इसकी आवश्यकता ही नहीं पड़ती, हमारे तो और बहुत मकान हैं । 
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सेठ दुकान पर चला गया । उसी समय लक्ष्मी एक यूथ के साथ बाजार से निकली और उक्त सेठ की दुकान पर रुककर दासी से बोली - पानी पीना है । दासी ने सेठ को कहा - हमारी स्वामिनी पानी पियेगी । उसने चांदी के गिलास में पानी दिया । दासी ने सोने का रत्न जटित गिलास निकाल कर कहा - इसमें डाल दो । सेठ ने डाल दिया । पानी पीकर वह रत्न जटित सवर्ण का गिलास सेठ कि दुकान पर पटक कर चलने लगे तब सेठ ने कह - आपका गिलास रह गया । दासी बोली हमारी स्वामिनी एक बार पानी पीने पर उस गिलास से पुनः नहीं पीती, फैक देती है । 
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तब सेठ ने यह सोचकर कि एक दो दिन भी ये ठर जायें तो मैं करोड़पति हो सकता हूँ । उनसे आग्रह किया कि एक दिन यहां विश्राम कर लो फिर पधारना । लक्ष्मी ने कहा - एकान्त स्थान हो तो ठहर सकते हैं । सेठ ने संत वाला कमरा बताया । लक्ष्मी ने कहा - है तो ठीक किन्तु यह साधु नहीं रहना चाहिये । सेठ ने संत से कहा - हमारे मेहमान आये हैं, एक दिन ठहरेंगे । आपका आसन दूसरे स्थान पर लगा देते हैं । संत - यह तो मैंने पहले ही कह दिया था कि चार मास आसन नहीं उठेगा । 
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सेठ ने उनका आसन उठवा दिया । वे चल दिये । तब माया का गूथ भी अन्तर्धान हो गया । अब भगवान्, वहां के तालाब पर एक संत रहते थे, उनके पास संत भेष में पधारे । वे संत इनको देखकर आइये - आइये कहने लगे । तब संत रूप भगवान् ने कहा - संतजी ! आयें क्या, जहां बाइयां आती हों वहां हमारा ठहरना नहीं बनता । तब संत ने कहा - बाइयां ते आती हैं किन्तु जब तक आप रहेंगे तब तक मैं नहीं आने दूंगा । 
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संत रूप भगवान् पास जाकर बैठे कि एक बाई श्वत वस्त्र धारण किये हुये हाथ में भोजन का थाल लिये आती दिखाई दी - तब संत रूप भगवान् ने कहा - देखो वह आ रही है । संत ने आवाज दी - माताजी ! आज यहां नहीं आना किन्तु वह लक्ष्मी ही थी नहीं रुकी । तब संत अपनी धूणी से एक जलता हुआ लम्बा दंडा उठाकर बाई की ओर चले और नहीं मानने पर दंडा कमर में मार दिया । फिर न तो माताजी रही और न संत रूप भगवान् ही रहे । 
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परीक्षा हो जाने से दोनों अन्तर्धांन हो गये । इस कथा से सूचित होता है कि ब्रह्मभक्ति हृदय में आ जाती है तब माया की भक्ति नहीं रहती । जैसे उक्त संत ने माया के दंडा मार ही दिया । माया की भक्ति है वहां ब्रह्म की भक्ति नहीं रहती जैसे उक्त सेठ में नहीं थी । फिर लक्ष्मी ने मान लिया कि - आपके भक्तों में जो निष्काम भक्त होते हैं, वे अवश्य ही मेरे भक्तों से श्रेष्ठ ही होते हैं । यह आज की परीक्षा से निर्णय हो गया है ।
(क्रमशः)

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