मंगलवार, 12 नवंबर 2013

जे हम छाड़ै राम को ३/१४५

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*विरह का अंग ३/१३६*
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*जे हम छाड़ै राम को, तो राम न छाड़ै ।*
*दादू अमली अमल तैं, मन क्यों करि काढै ॥१४५॥* 
दृष्टांत - 
कोउ अमली मगजात था, अमल समय हो जाय ।
गाँव दूर दुख अति लहा, मूंज नीर पी जाय ॥१४॥
दादू अमली अमल तैं साखी के उत्तरार्ध पर दृष्टांत है - कोई एक अफीमची मार्ग से जा रहा था । अफीम पास नहीं था । अफीम खाने का समय मार्ग में ही हो गया । नशा उतर गया, अफीम नहीं है अतः चल नहीं सकता । वह व्यक्ति दयालु था इससे उसने कहा - मैं इस ढांणी में जाकर अफीम लाता हूं । वहा गयां वहां अफीम नहीं मिला किन्तु उसने देखा कि पशुओं के पानी पीने की खेल में मूंज भीग रही थी और वह पानी अफीम के डोडों के पानी के समान रंग वाला हो रहा था । 
अतः उसने अपने लोटे में वह पानी लाकर उसे कहा - अफीम तो नहीं मिला किन्तु अफीम के डोडों का पानी मिला है । अफीमची ने कहा - यह अफीम का ही है । पान करके झट खड़ा हो गया और अपने गाँव में जा पहुँचा । जैसे अफीमची अफीम से मन नहीं निकाल सकता, वैसे ही विरही जनों के मन राम से नहीं निकलते ।

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