*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“पंचम - तरंग” २९/३०)*
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*बनवारीदास जी*
सिन्धु हि राग सुने हरिदास जु,
संत मुनीश भये बनवारी ।
ले उपदेश हि वेद सुने पद,
सिद्ध भये त्रय ताप निवारी ।
दोय समीप रहे गिनिये शत,
ये दो बावन में अधिकारी ।
उत्तर देश चिताय भजे हरि,
रत्तिय में तपि हैं इकसारी ॥२९॥
हरियाणा प्रान्त के रतिया ग्राम - निवासी गौड़ ब्राह्मण जातीय चारों भाई(ब्रह्मदास, मुनीराम, बनवारीदास तथा हरिदास) श्री दादूजी के शिष्य बने । स्वामीजी से उपदेश - प्रसंग में चार पद्य सुने(जो श्री दादूवाणी के सिन्धूरा राग में निबद्ध है) । भजन करके चारों ही सिद्ध बन गये । संसार के तीनों ताप नष्ट हो गये । दो शिष्य तो गुरुजी के समीप ही रहकर भजन करते रहे, जिनकी गणना सौ शिष्यों में हुई, और दो शिष्य(बनवारीदास जी तथा हरिदास जी) उत्तर दिशा के प्रान्त में हरिभक्ति जगाने लगे, जिनकी गणना मुख्य बावन शिष्यों में हुई । रतिया में इन्होंने आश्रम स्थापित किया ॥२९॥
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*सांभर शहर में पक्का सत्संग भवन*
सांभर सेवक वैश्य महेश्वरि,
ईश्वर सेवक गोविन्द आये ।
संत हु स्थान पको पुर में करि,
तां मधि संतन को पधराये ।
यों करि काल व्यतीत भये पुर,
संतन भाव सबै जग छाये ।
सांझ संवारि रहैं पुरभीतर,
रैन समय निधि ध्यान कराये ॥३०॥
साँभर के वैश्य माहेश्वरी सेवक - ईश्वर और गोविन्दराम ने स्वामीजी की सेवा में पक्का सत्संग भवन बनवाया । प्रार्थनापूर्वक स्वामीजी को वहाँ पर विराजमान किया । इस तरह सत्संग भजन में समय बीतने लगा । नगर में संत - सेवा का भाव बढता रहा । स्वामीजी तो प्रात: से सन्ध्या तक ही नगर के सत्संग भवन में विराजते थे, रात्रि होने पर झील मध्य आसन पर ही ध्यान लगाने पधार जाते थे । अन्य संत नगर में रहते थे ॥३०॥
(क्रमशः)
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