शुक्रवार, 15 नवंबर 2013

वार पार नहिं नूर का ४/१०४

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*परिचय का अंग ४/१०४*
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*वार पार नहिं नूर का, दादू तेज अनन्त ।*
*कीमत नहिं करतार की, ऐसा है भगवन्त ॥१०४॥*
उक्त १०४ की साखी के “कीमत नहिं करतार की” इस अंश पर दृष्टांत - 
इन्दव - 
सेठ जाहज गई सर मांझ तहां मरजीवन भीतर डारे ।
तीन हि बेर न हाथ लगा तब सेठ उदास दुखी मन भारे ॥
पुन्य निमित्त धस्ये चवथैं इक कंकर लेकर बाझि पधारे ।
लेकर कीमत काज फिर्यो जग काबुल कोटि अठार बधारे ॥
दोहा - 
तिन कर अंजन आँख में, तरुण भये तत्काल ।
और अनन्त गुण तासु के, को वरणे बुधि बाल ॥३॥
एक सेठ जहाज में बैठ कर वहां गया जहां समुद्र में प्रायः बहुमूल्य रत्न मिला करते थे । वहां रहने वाले मरजीवों(समुद्र में गोता लगाने वालों) को उनकी इच्छानुसार धन देकर समुद्र तल में तीन बार भेजा किन्तु तीनों बार ही वे खाली आये । तब सेठ के मन में बहुत दुःख होने से उसका मुख उदास हो गया । तब मरजीवों ने पुन्य के निमित्त अर्थात् बिना धन लिये ही चौथी बार गोता मारा तो वे लोग एक कंकर लेकर बाझि(बाहर) आये । 
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वह सेठ उस कंकर को लेकर उसकी कीमत कराने के लिये बहुत स्थानों में जौहरियों के पास गया किन्तु उसकी कीमत नहीं हो सकी । फिर वह काबुल में एक प्रधान जौहरी के पास गया तो उसने कहा - मेरे पास १८ कोटि रूपये हैं, वे मैं इसके दे सकता हूं । पर इसकी पूरी कीमत मैं नहीं कर सकता अतः यह अठारह कोटि से भी बधारे(अधिक कीमत का है) । 
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कंकर वाले सेठ ने वह कंकर देकर अठारह कोटि ले लिये । फिर लेने वाले सेठ सेठानी ने उसको घिसकर नेत्रों में लगाया तो वे वृद्ध होने पर भी तत्काल तरुणावस्था के हो गये । और भी उस कंकर में अनन्त गुण थे । किन्तु बालबुद्धिवालों में उन गुणों का वर्णन कौन कर सकता है । जब परमात्मा के रचित पदार्थो की ही कीमत नहीं हो सकती तब परमात्मा की कीमत बालबुद्धि(अज्ञात तत्व) वालों से कैसे हो सकती है । 
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इसी से कहा है “कीमत नहिं करतार की” सेठ ने बिना कीमत किये जैसे अपना सर्वस्व दे दिया, वैसे ही जिज्ञासुजन अपना सर्वस्व प्रभु को देकर ज्ञानीजनों से ज्ञानादि साधन ग्रहण करके आनन्दित होते हैं और ज्ञानी उनकी सेवा से आनन्दित होते हैं । बिना कीमत जाने भी परमात्मा दोनों को आनन्द प्रदान करता है ।
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द्वितीय दृष्टांत - 
चार लाल की परीक्षा, करवाई पतशाह ।
मुरकी कीमत कर दयी, एक रही बिन थाह ॥४॥
एक बादशाह के चार लाल भेंट में आई थीं । बादशाह ने जौहरियों से उनकी कीमत करवाई । तब तीन लाल की कीमत तो परीक्षा करके कर दी गई । उसमें सब जौहरी सहमत थे । किन्तु चौथी की कीमत में सब का मतभेद रहा । 
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तब बादशाह ने कहा - यदि आज हमारा वृद्ध जौहरी होता तो इसकी कीमत भी कर सकता था । फिर बादशाह ने उक्त कथा अपने गुरु से कही तब गुरु ने कहा - वृद्ध जौहरी का लड़का है, वह उसकी कीमत कर देगा । बादशाह ने लड़के को बुलाया । राजपुरुषों ने जाकर लड़के को कहा - बादशाह तुमको एक लाल की परीक्षा कराने को बुलाते हैं । लड़का - बादशाह जैसे मेरे पिता को बुलाते थे उसी रिति से मुझे बुलावें और मेरे पिता का स्थान मुझे प्रदान करें तो मैं लाल की परीक्षा कर दूंगा । 
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राजपुरुषों ने जाकर लड़के की बात सुना दी । बादशाह ने लड़के के कथनानुसार ही कर दिया । लड़का आया और तीन लाल की परीक्षा में तो पूर्व जौहरियों से सहमत रहा और चौथी के लिये कहा - इसकी कीमत करना सहज नहीं है, किन्तु तहखाने में इसका कु़छ ज्ञान हो सकता है । फिर सब तहखाने में जाकर बैठे और रोशनी बन्द कर दी । फिर लड़के ने डिबिया से लाल निकालकर बाहर रक्खा तो उसकी रोशनी फैल गई । 
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लड़के ने कहा - इसके प्रकाश से इसकी कीमत का अनुमान कर सकते हैं, वैसे इसकी कीमत नहीं हो सकती । लड़के की बात सब ने मान ली । 
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“कीमत नहिं करतार की” उक्त प्रकार ही करतार के चार रूप हैं - १ विराट, २ हिण्यगर्भ, ३ ईश्वर, ४ ब्रह्म, । पूर्व तीन माया के सबन्ध से बनते हैं । अतः तीन की परीक्षा व लक्षण रूप कीमत तो विद्वान लोग कर देते है, किन्तु ब्रह्म को तो अपार ही कहते हैं । जब मायिक पदार्थों की भी कीमत नहीं हो सकती तब करतार(ब्रह्म) की कीमत कैसे हो सकती है । उक्त कथा का तात्पर्य यही है ।

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