मंगलवार, 24 दिसंबर 2013

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卐 सत्यराम सा 卐
दादू केई दौड़े द्वारिका, केई काशी जांहि । 
केई मथुरा को चले, साहिब घट ही मांहि ॥८॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! कितने ही आस्तिक बुद्धि वाले पुरुष भगवान् की प्राप्ति के लिये द्वारिका जाते हैं और कितने ही शंकर भगवान् की प्राप्ति के लिये काशी जाते हैं । और कितने ही पुरुष भगवान् कृष्ण की प्राप्ति के लिये मथुरा दौड़कर जाते हैं । परन्तु वह चैतन्य कृष्ण रूप शंकर और शंकर रूप कृष्ण, वे तो सबके अन्तःकरण में अधिष्ठान रूप से रह रहे हैं । उनको बहिरंग वृत्ति वाले कोई नहीं जान पाते ॥८॥ 
कबीर केई दोड़ै द्वारका, केई जायँ जगन्नाथ । 
साधु संगति हरि भक्ति बिन, कछु न आवै हाथ ॥ 
दादू सब घट मांही रम रह्या, बिरला बूझै कोइ । 
सोई बूझै राम को, जे राम सनेही होइ ॥९॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! वह राम सम्पूर्ण शरीर में नख से चोटी पर्यन्त व्याप्त हो रहा है, जैसे तिलों में तेल, दूध से घृत, पुष्प में गंध । परन्तु कोई उत्तम विवेकी ही इस प्रकार समझता है । वही राम को इस प्रकार जानता है, जो संसार से अन्तर्मुख होकर अधिष्ठान रूप राम से स्नेह करता है ॥९॥ 
दादू जड़मति जीव जाणै नहीं, परम स्वाद सुख जाइ । 
चेतन समझै स्वाद सुख, पीवै प्रेम अघाइ ॥१०॥ 
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जड़ पदार्थों की उपासना करने वाले, अर्थात् स्थूल पदार्थों में ही बुद्धि का उपयोग करने वाला परम स्वाद, कहिये ब्रह्मानन्द रस के बिना, अज्ञानियों का विषय - वासना में ही व्यर्थ जीवन जाता है । और जो ‘चेतन’ कहिये मानव जीवन की सार्थकता में सावधान है, वही जिज्ञासु ब्रह्मानन्द रूपी रस का अतृप्त भाव से अनुभव द्वारा पान करता है ॥१०॥ 
(श्री दादूवाणी ~ कस्तूरिया मृग का अंग) 
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साभार : Dana Ram Patel ~ 
कबीर ने बड़ा प्यारा प्रतीक चुना है। जिस मंदिर की तुम खोज कर रहे हो, वह तुम्हारे कुंडल में बसा है; वह तुम्हारे भीतर है। तुम ही हो। और जिस परमात्मा की तुम मूर्ति गढ़ रहे हो, उसकी मूर्ति गढ़ने की कोई जरूरत ही नहीं; तुम ही उसकी मूर्ति हो। 
तुम्हारे अंतर आकाश में जलता हुआ उसका दीया, तुम्हारे भीतर उसकी ज्योतिर्मयी छवि मौजूद है। तुम मिट्टी के दीए भले हो ऊपर से, भीतर तो चिन्मय की ज्योति है। मृण्मय होगी तुम्हारी देह; चिन्मय है तुम्हारा स्वरूप। मिट्टी के दीए तुम बाहर से हो, ज्योति थोड़े ही मिट्टी की है। दीया पृथ्वी का है, ज्योति आकाश की है। दीया संसार का है; ज्योति स्थिति वही है जो कस्तूरी मृग की है। 
भागते फिरते हो; जन्मों-जन्मों से तलाश कर रहे हो-जिसे तुमने कभी खोया नहीं। खोजने के कारण ही तुम वंचित हो। यह कस्तूरी-मृग पागल ही हो जाएगा। यह जितना खोजेगा उतनी मुश्किल में पड़ेगा। जहाँ जाएगा, कहीं भी जाए, सारे संसार में भटके तो भी पा न सकेगा। क्योंकि बात ही शुरू से गलत हो गई-जो भीतर था उसे उसने बाहर सोच लिया, क्योंकि गंध बाहर से आ रही थी, गंध उसे बाहर से आती मालूम पड़ी थी।

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