卐 सत्यराम सा 卐
साहिब जी की आत्मा, दीजे सुख संतोंष ।
दादू दूजा को नहीं, चौदह तीनों लोक ॥१३॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! कूटस्थ ब्रह्म चेतन का ही सम्पूर्ण शरीरों में चिदाभास रूप जीवात्मा हैं । इसलिये तीन लोक और चौदह भवन में सभी जीवों को सुख और संतोंष कायिक, वाचिक व मानसिक क्रिया से दीजिये ॥१३॥
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दादू जब प्राण पिछाणै आपको, आत्म सब भाई ।
सिरजनहारा सबनि का, तासौं ल्यौ लाई ॥१४॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जब प्राणधारी अपने आपको पहचाने अर्थात् गुरु उपदेश द्वारा अपने स्वरूप आत्मा को जान, तो फिर सभी शरीरों में एक आत्मा को सिरजनहार रूप जानकर अखंड लय लगाता है ॥१४॥
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आत्मराम विचार कर, घट घट देव दयाल ।
दादू सब संतोंषिये, सब जीवों प्रतिपाल ॥१५॥
टीका ~ हे जिज्ञासु ! जब आत्म - स्वरूप राम अद्वैत सत्संग द्वारा विचार करिये, तो सब शरीरों में एक ही दयालु चैतन्यरूप परमेश्वर का ही दर्शन होता है । इसलिये सभी प्राणधारी जीवों की प्रतिपालना वस्त्र, भोजन, जल आदि से करिये ॥ १५ ॥
(दया निरवैर्ता का अंग ~ श्री दादूवाणी)
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साभार : Kamal Agrawal ~
सरस्वती चंद्र तीर्थयात्रा पर जा रहे थे। लंबे और कठिन सफर को देखते हुए साथ में बर्तन, भोजन और जरूरत का अन्य सामान भी था। रास्ते में एक गांव पार करते हुए वह वहां के एक वीरान मंदिर में रुक गए। पहले तो सोचा कि यहां कोई नहीं होगा पर मंदिर के अंदर गए तो देखा एक बीमार वृद्ध कराह रहे हैं। उनकी हालत देख लगता था कि उन्होंने काफी दिनों से कुछ खाया न हो। सरस्वती चंद्र को उन पर दया आ गई। उन्होंने कुछ समय वहीं रुककर उनकी सेवा करने का फैसला किया। उन्होंने अपने कपड़े उस वृद्ध सज्जन को पहना दिए। अपने सारे बर्तन मंदिर के उपयोग के लिए रख दिए। अपना भोजन भी उन्हें खिला दिया। फिर आसपास से फल और कुछ औषधियां ले आए।
खाली समय में सरस्वती चंद्र मंदिर की सफाई में लगे रहते। इस तरह मंदिर का कायाकल्प हो गया। इधर वृद्ध सज्जन धीरे-धीरे स्वस्थ होने लगे। कुछ दिनों के बाद सरस्वती चंद्र बिना तीर्थधाम गए ही घर वापस आ गए। घर वालों ने इस तरह आने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि रास्ते में ही उन्हें ईश्वर के दर्शन हो गए। इसलिए आगे जाने की उन्होंने कोई आवश्यकता ही नहीं समझी और लौट आए। इधर मंदिर के पुनरोद्धार हो जाने से लोग वहां फिर से आने-जाने लगे। इस तरह सूने पड़े मंदिर में रौनक लौट आई। वहां वह वृद्ध सज्जन हर किसी को यह बताते थे कि एक दिन यहां ईश्वर आए थे। उन्होंने ही इस मंदिर को तीर्थ बनाया और मुझे जीवन-दान दिया।
संकलन: मुकेश जैन
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