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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/४३*
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*साहिब देवे राखणे, सेवक दिल चोरे ।*
*दादू सब धन साह का भूला मन थोरे ॥४३॥*
दृष्टांत -
गोद लियो सुत सेठ, सर्वस्व सौंपा तासु को ।
करी मूढ़मति नेठ, थैली ले न्यारी धरी ॥१०॥
एक सेठ के पुत्र नहीं था । अतः उसने एक गोद का पुत्र रखा । उसने प्रथम तो सेठ की अच्छी सेवा की इससे सेठ ने अपना सब धन उसके हाथ में सौप दिया । सब धन हाथ में आ जाने के पश्चात् उसने सेठ की सेवा करना छोड़ दिया और सेठ कु़छ माँगे तो भी देने में अति संकोच करे ।
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तब सेठ ने अपने कुम्हार से मिट्टी के रूपये बनवाकर थेलियां भराई और अपने पलंग के पास एक बड़ा संदूक सखवाकर उसमें भरवा दीं । फिर दो चार थैलीं सच्चे रूपयों की उन थैलियों के ऊपर रखवा दी । एक दिन संदूक से सेठ को रूपये निकालते देखा तो रूपयों की थेलियों से संदूक भरा देखा, तब पूर्ववत सेवा करने लगा किन्तु पुनः सेठ ने अपना भेद उसे नहीं दिया ।
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उक्त प्रकार ही भगवान् ने मनुष्य शरीर निष्काम पतिव्रत रखने को ही दिया है किन्तु यह प्राणी जब नहीं रखता तो फिर प्रभु इसे अपना रहस्य अवगत नहीं कराते । यह नहीं समझता कि यह सभी धन प्रभु का ही है और सकाम कर्म के फल थोड़े से धन को प्राप्त कर के प्रभु को भूल जाता है । तब उक्त सेठ के समान भगवान् भी उसको अपना भेद(रहस्य) नहीं बताते ।
(क्रमशः)
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