गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

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卐 सत्यराम सा 卐
पहली किया आप तैं, उत्पत्ति ओंकार ।
ओंकार तैं ऊपजै, पंच तत्त्व आकार ॥८॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सृष्टि के आदि में परमात्मा ने पहले अपने आपसे ओंकार उत्पन्न किया । फिर ओंकार शब्द से पॉंच तत्त्व आकार रूप में उत्पन्न होते हैं ॥८॥
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पंच तत्त्व तैं घट भया, बहु विधि सब विस्तार ।
दादू घट तैं ऊपजै, मैं तैं वर्ण विकार ॥९॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! फिर पॉंच तत्त्व से, अर्थात् पंचीकृत पंच महाभूतों से, स्थूल शरीर उत्पन्न होता है । फिर शरीर से बहुत प्रकार के व्यवहार का विस्तार होता है । और फिर घट से कहिए, शऱीर से मैं अमुक, तूं अमुक, वर्ण काला गोरा, आदि का विचार होता है अथवा वर्ण आश्रम आदि का विचार करता है ॥९॥
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एक शब्द सब कुछ किया, ऐसा समर्थ सोइ ।
आगै पीछे तो करै, जे बलहीना होइ ॥१०॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! एक शब्द, शून्य प्रकृति, प्रणव अर्थात् ओंकार शब्द से, सब गृहीत है अर्थात् नाद और बिन्दु से दो प्रकार की सृष्टि मानी है । शब्द रूप सृष्टि का मूल कारण प्रणव है और वह ही जगत का कारण रूप मूल है । ब्रह्म का भी ओंकार वाचक स्वरूप है ॥१०॥
अकबर बूझी बात बहु, गुरु दादू ढिग आइ ।
सृष्टि हुई कैसे कहो, या साखी समझाइ ॥
अकबर बूझै सन्तजी, तीन बात अड़ी ।
ऐरण हथौड़ा संडासी, पहले कौन घड़ी ॥
दृष्टान्त ~ ब्रह्मऋषि दादूदयाल महाराज को बादशाह अकबर ने राजा भगवन्तदास के द्वारा आमेर से सीकरी बुलाया । तब प्रथम यह प्रश्‍न किया कि इन तीनों में से पहले कौनसी चीज बनी ? अर्थात् दार्ष्टान्त में स्वर्ग, मृर्त्यलोक, पाताल लोक इन तीनों में से प्रथम किसकी रचना हुई । अथवा प्रथम आकाश, अग्नि, जमीन, इनमें से पहले कौन उत्पन्न हुआ ? ब्रह्मऋषि ने उपरोक्त १० नम्बर साखी से उत्तर दिया कि वह परमेश्‍वर सर्व शक्तिवान् समर्थ है । उसके एक शब्द से ‘एकोऽहम् भविष्यामि’ ऐसा संकल्प करते ही सम्पूर्ण सृष्टि की रचना हो गई । अकबर बादशाह यह उत्तर सुनते ही ब्रह्मऋषि के सामने नत - मस्तक हो गया ।
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निरंजन निराकार है, ओंकार आकार ।
दादू सब रंग रूप सब, सब विधि सब विस्तार ॥११॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! निरंजन ओंकार का अमात्रिक चतुर्थपद, अधिष्ठान ब्रह्म, अखंड, अद्वैत, परमतत्त्व निराकार रूप है । और त्रिपाद अकार उकार मकार, ओंकार शब्द ब्रह्म, माया अध्यस्त होने से साकार है । और नाम रूप आदि का जितना विस्तार है, सो केवल माया अध्यस्त त्रिपाद रूप सृष्टि का विस्तार है ॥११॥
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आदि शब्द ओंकार है, बोलै सब घट मॉंहि ।
दादू माया विस्तरी, परम तत्त यहु नांहि ॥१२॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! सृष्टि का आदिकारण समष्टि ओंकार स्वरूप ब्रह्म है और व्यष्टि भाव से सब घट कहिए, प्राणीमात्र में बोलता है और साक्षीभाव से सर्व जीवों को चेतनता प्रदान करता है । इस रीति से शब्द - ब्रह्म से चेतन सत्ता पाकर, नामरूप से सर्व जगत प्रपंच में माया का विस्तार हो रहा है ॥१२॥
इस प्रकार मायावी कार्य नाम - रूप जगत, परम तत्त्व नहीं है । विशेष विवरण ~ इस साखी में पूर्व पक्षी की शंका का समाधान किया है । पूर्व पक्षी की यह शंका है कि ओंकार शब्द ब्रह्म का वाचक है । और ब्रह्म वाच्य है और वाच्य वाचक में अभेद भाव है । इसलिये पूर्व प्रसंग में ब्रह्मतत्त्व को जो निर्गुंण निष्क्रिय अथवा कारण - कार्य भाव से मुक्त माना है, सो असम्भव है । क्योंकि पूर्वोक्त साखियों में ओंकार सृष्टि का आदि - कारण स्पष्ट कह चुके हैं । जैसे ओंकार सृष्टि का कारण है, तैसे ही ओंकार वाच्य निर्गुण निष्क्रिय ब्रह्म में भी कारणता बनेगी । इस रीति से पूर्व पक्षी के मत में, ब्रह्म में कारण - कार्य भाव की आशंका होती है । परन्तु सिद्धान्त पक्ष में यह अभिप्राय है कि ओंकार के भी दो स्वरूप हैं । और इसमें प्रथम तो अकार, उकार, मकार, यह तीन मात्रा रूप जो वर्ण हैं, सो तो अपरमार्थ रूप है और चतुष्पाद अमात्रिक में अस्ति - भाति - प्रिय रूप अनुगत है । सो परमार्थ रूप अधिष्ठान चेतन है । इस रीति से नाम रूप जगत - प्रपंच में, माया विशिष्ट मात्रारूप अपरमार्थ ओंकार शब्द, ब्रह्म में ही कारणता है । चतुष्पाद अमात्रिक, परमार्थरूप ओंकार अधिष्ठान ब्रह्म में कारण - कार्य भाव नहीं है । इसी से सतगुरु १२ वीं साखी में इसी भाव को स्पष्ट करके परमार्थ रूप अमात्रिक ओंकार को तो निरंजन, निराकार और अपरमार्थ रूप वर्ण वाच्य ओंकार को आकार साकार रूप प्रतिपादन करेंगे । इस रीति से परमतत्त्व अधिष्ठान ब्रह्म में कारण - कार्य भाव असम्भव है । सिद्धान्त पक्ष में ही जो कहा, सो ही ठीक है । और ओंकार के अपरमार्थ पक्ष को लेकर तो पूर्व पक्षी की शंका है और सिद्धान्त में परमार्थ पक्ष द्वारा उसका खंडन है । वेदान्त प्रक्रि या के अनुसार ओंकार का वाच्य सगुण ब्रह्म है और अधिष्ठान रूप निर्गुण ब्रह्म लक्ष्य अर्थ है, वाच्य नहीं । जब निर्गुण ब्रह्म ओंकार वाच्य नहीं है तो वाच्य - वाचक भाव के आधार पर पूर्व पक्षी का तर्क निष्फल है ।
(श्री दादू वाणी ~ शब्द का अंग)

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