गुरुवार, 19 दिसंबर 2013

दादू तन - मन मेरा पीव सौं ८/२३

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/२३*
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*दादू तन - मन मेरा पीव सौं, एक सेज सुख सोइ ।*
*गहिला लोक न जाण ही, पच - पच आपा खोइ ॥२३॥*
दृष्टांत - चोखा एक चमार, पण्ढरपुर विट्ठल हरी ।
दोनों जीमत लार, मूढ न जानत तासु गति ॥३॥
चोखा मेला महार(चमार) जाति के थे । मंगल बेडा में रहते थे । पण्ढरपुर के विट्ठल भगवान् के परम भक्त थे और बारंबार पण्ढरपुर आते ही रहते थे । नामदेवजी के ही गुरु मानते थे । 
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वैसे ये मजदूरी करके खाते थे किन्तु मजदूरी नहीं मिलती तो ग्राम से टुकड़े मांगकर पण्ढरपुर के विट्ठल मंदिर के महाद्वार पर भगवान् के भोग लगाकर पाते थे । यह वहां के पुजारियों को अच्छा नहीं लगता था । इससे वे इनको निषेध करते थे कि तुम इन गन्दे टुकड़ों को लाकर यहां भगवान् के भोग मत लगाया करो । किन्तु ये नहीं मानते थे । 
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इससे एक दिन पुजारियों ने इनके मिट्टी के ठीकरे को जिसमें रोटीयों के टुकड़े थे उसे फोड़ डाला और रोटियों के टुकड़े आदि इधर - उधर फैंककर इनको भी बहुत पीटा । फिर जब मंदिर खोला तो मंदिर में रोटियों के टुकड़े आदि बिखरे मिले फिर सबने प्रार्थना की तब भगावान् ने नभवाणी से कहा - मैं भूखा रहता हूँ, चोखा मुझे जिमाता है, आज तुमने मेरे भोजन को इधर उधर फेंक दिया और चोखा को भी पीटा । 
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पुजारियों ने कहा - आप भूखे क्यों रहते हैं ? आपके तो प्रतिदिन नाना पदार्थो का बहुत मात्रा में भोग लगाया जाता है । भगवान् ने कहा - वे सब तो तुम लोग ही खाते हो, मुझे तो एक चोखा ही जिमाता है तुम नहीं जानते । सोई उक्त २३ की साखी के "गहिला लोक न जाण ही" से कहा है । 
(क्रमशः)

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