मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

दादू निबहै त्यों चले ७/३८

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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*लै का अंग ७/३८*
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*दादू निबहै त्यों चले, धीरे धीरज मांहिं ।* 
*परसेगा पिव एक दिन, दादू थाके नांहिं ॥३८॥* 
दृष्टांत - टीटोड़ी अंडा धरे, सागर लिये डुबाय । 
श्रद्धा कर थाकी नहीं, समुद्र दीन्हे लाय ॥६॥ 
एक टीटोड़ी ने समुद्र के पास ही अंडे दिये थे एक दिन समुद्र ने अपनी झाल से अपने में डुबो लिया । तब टीटोड़ी समुद्र को सुखाने का यत्न करने लगी । अपने पंजों से और चूंच से समुद्र में रेता डालने लगी । दूसरे पक्षियों ने पू़छा - तू ऐसा क्यों करती है ? उसने कहा - मेरे अंडे समुद्र ने अपने में डुबो लिये हैं अतः मैं समुद्र को सुखाने के लिये ऐसा करती हूँ । 
पक्षियों ने सोचा - टीटोड़ी के समान यह हमारे अंडे भी डुबो सकता है । अतः हमें टीटोड़ी की सहायता अवश्य करनी चाहिये । फिर तो सब पक्षियों ने समुद्र में रेता डालना आरम्भ कर दिया । पक्षियों की यह लीला देखकर नारदजी गरुड़जी के पास गये और पक्षियों की कथा सुनाकर कहा - आप पक्षियों के राजा है आपको अपनी प्रजा की सहायता अवश्य करना ही चाहिये । 
तब गरुड़जी उक्त स्थान पर गये और पंजों के बल पूर्वक आघातों से समुद्र को क्षुब्ध कर दिया । तब समुद्र ने टीटोड़ी के अंडे लौटाकर गरुड़जी से क्षमा याचना की । वही उक्त ३८ की साखी में कहा है - जैसे टीटोड़ी पूर्ण श्रद्धा विश्वास से अपने काम को करती रही, वैसे ही साधक अपने से जैसे हो सके वैसे ही धैर्य पूर्वक साधन करता रहेगा तो एक दिन प्रभु को प्राप्त हो ही जायगा । 
इति श्री लै का अंग ७ समाप्तः
(क्रमशः)

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