मंगलवार, 17 दिसंबर 2013

= १०७ =


#daduji
卐 सत्यराम सा 卐
दादू उद्यम औगुण को नहीं, जे कर जाणै कोइ ।
उद्यम में आनन्द है, जे सांई सेती होइ ॥१०॥
टीका ~ हे जिज्ञासुओं ! भजन रूपी उद्योग यदि अन्तर्मुख वृत्ति द्वारा परमेश्‍वर से करे तो उसमें ब्रह्म - प्राप्ति रूप पूर्ण आनन्द है और फिर उस जिज्ञासु के अन्तःकरण में किसी प्रकार के कोई भी विकार नहीं उत्पन्न होते हैं अथवा व्यवहार में भी निष्काम भाव से कर्मयोग रूप उद्योग करे तो उनको कोई दोष नहीं लगता है, और फिर वह आत्मानन्द का अनुभव करता हुआ, जीवन - मुक्त हो जाता है ॥१०॥
इक उद्यम विश्‍वास दोऊ, राखे एकै स्थान । 
दो मोदक लिये भरे, दिये उद्यमी आन॥
दृष्टान्त ~ एक पुरुष उद्यम को बड़ा बताता था, दूसरा विश्‍वास को बड़ा बताता था । दोनों एक संत के पास गये । अपने - अपने प्रश्‍न बताये । संत बोले ~ इस हमारी कुटिया में रात को रह जाओ । दोनों को पता चल जायेगा कि उद्यम बड़ा है या विश्‍वास ।
महात्मा ने कुटिया को अपने तपोबल से ठंडी बना दी । दोनों पुरुषों के कपड़े उतार कर उस कुटिया में बन्द कर दिया । विश्‍वासी ने सोचा कि मुझे तो जैसे बाहर बैठना था, वैसे ही विश्‍वास लेकर अन्दर बैठना है । उद्यमी ने विचार किया कि मैं तो उद्यम करता हूँ इसलिये उद्यम से ही मेरा काम होगा । यह विचार कर, वह दंड बैठक रूप उद्यम करने लगा ।
जब शरीर में गर्मी पैदा हुई, तब इधर - उधर दीवारों के शरीर की टक्कर देने लगा । महात्मा जी ने एक युक्ति बना रखी थी । जब उस दीवार के जाकर टक्कर लगी, तो वह दीवार टूट गई और हाथ देकर उसमें देखा तो एक डिब्बा मिला । उसको खोला तो, उसमें लड्डू भरे थे । फिर दुबारा हाथ दिया, तो गंगा - जल की एक शीशी मिली । तीसरे फिर हाथ बढ़ाया, तो लकड़ी, माचिस, फूस, सब मिल गया ।
सब बाहर निकाल कर कोठरी के बीच में अग्नि जलाकर धूनी सिलगा दी । कोठरी गर्म हो गई । डिब्बे से लड्डू निकाले । विश्‍वासी को भी दिये और आप भी खाये । दोनों ने जल पीया । सारी रात खूब आराम से सोये । सवेरे महात्मा जी उठे । कुटिया में धुआँ निकलता देखा । जान गये कि, हैं तो दोनों पक्के । दरवाजा खोला, दोनों ने गुरु महाराज को नमस्कार किया ।
उद्यमी बोला ~ गुरु जी उद्यम बड़ा । विश्‍वासी बोला ~ नहीं, गुरु जी, विश्‍वास बड़ा है । तब गुरु महाराज बोले ~ दोनों बराबर हैं । क्योंकि तैंने उद्यम किया तो, तुझे तो उद्यम से ही मिला है, इसने तो उद्यम नहीं किया, यह तो विश्‍वास ही धारण करके बैठा था, इसके विश्‍वास ने इसको दिया । परमेश्‍वर उद्यम द्वारा ही देते हैं । देने वाला एक ही परमेश्‍वर है । दोनों का संदेह निवृत्त हो गया । गुरुदेव का उपदेश लेकर दोनों ही इस संसार को पार हो गये ।
(श्री दादू वाणी ~ विश्वास का अंग)

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