दादू जे साहिब कौं भावै नहीं, सो हम थैं जनि होइ ।
सतगुरु लाजै आपणा, साध न मानैं कोइ ॥
दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो सब परिहर प्राण ।
मनसा वाचा कर्मणा, जे तूं चतुर सुजाण ॥
दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो जीव न कीजी रे ।
परिहर विषय विकार सब, अमृत रस पीजी रे ॥
दादू जे साहिब को भावै नहीं, सो बाट न बूझी रे ।
सांई सौं सन्मुख रही, इस मन सौं झूझी रे ॥
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