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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*मन का अंग १०/१४*
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दादू - बिन अवलम्बन क्यों रहै, मन चंचल चल जाइ ।
सुस्थिर मनवा तो रहै, सुमिरण सेती लाइ ॥१४॥
दृष्टांत -
साधु भूत दिया सेठ को, टहल करण के काज ।
बांस मँगाइ गडाय कह, बड़ा काज यह आज ॥४॥
एक सेठ के पास एक साधु आता रहता था । एक दिन वह आया तो सेठ को उदास बैठा देखकर पू़छा - आप उदास क्यों है ? सेठ ने कहा - काम बहुत है, नौकर भी कई हैं किन्तु काम नहीं कर पाते । साधु ने अपना सिद्ध किया हुआ एक भूत सेठ को दे दिया ।
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वह मानव रूप में सेठ के काम करने लगा । दिनों के काम घंटों में ही पुरे करने लगा । जब सब काम हो गये तो भूत ने कहा - यदि आप मुझे काम नहीं बताओंगे तो मैं आपको खा जाऊंगा । तब सेठ काम तो तैयार रक्खे किन्तु इस चिन्ता से सूखने लगा कि काम न होने पर वह मुझे खा जायगा ।
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इन्हीं दिनों में उक्त साधु फिर आया और सेठ को पू़छा - कैसे सूख गये ? तब सेठ ने उक्त बात बतादी । साधु ने कहा - एक लम्बा बाँस घर के द्वार पर गड़वा दो । काम हो तब तो काम कराओ और काम नहीं हो तब कहो - इस बाँस पर चढ़ और उतर यही काम है दिन रात करता रहै ।
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सेठ ने वैसा ही किया फिर भय से मुक्त होकर भूत से काम कराता रहा और बांस पर चढ़ाता - उतारता रहा । उक्त प्रकार ही काम हो वे तो मन से करता रहे । काम नहीं हो तब निरन्तर हरि स्मरण करता रहे तब तो मन इधर - उधर दौड़ना त्याग कर सुस्थिर हो स्मरण में लगा रहेगा । उक्त १४ की साखी में यही कहा है ।
(क्रमशः)
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