卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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अष्टम दिन ~
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बैठी घर इक के संग लागी,
अन्य सर्व की आशा भागी ।
समझ गई पतिव्रत युत नारी,
नहिं, मनयुक्त वृत्ति है प्यारी ॥१७॥
आं वृ. - “एक अन्य सर्व की आशा को त्याग कर एक ही के संग लगी हुई घर में बैठी रहती है । बता वह कौन है ?”
वां वृ. - “पतिव्रता है ।”
आं वृ. - “नहिं, सखि ! वह तो जीती हुई संत की मनोवृत्ति है । ब्रह्म के संग लग कर, ब्रह्म स्वरूप में ही स्थित रहती है । तू भी जब निदिध्यासन रूप साधन करेगी तब तेरी वृत्ति भी तेरे अधीन होकर सदा ब्रह्म परायण ही रहेगी ।”
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इक इक में आये इक भागे,
आवे सो मम अति प्रिय लागे ।
धन आये घर दारिद जावे,
नहिं, अघ धर्म मुझे नित भावे ॥१८॥
आं वृ. - “एक, एक में आते ही, एक भाग जाता है और आने वाला मुझे बहुत प्रिय लगता है । बता वे कौन हैं ?”
वां वृ. - “धन आने से दरिद्र चला जाता है और धन का आना सभी को प्यारा लगता ही है ।”
आं वृ. - “नहिं, सखि ! अन्त:करण में जब धर्म आता है, तब अघ(पाप) भाग जाता है और धर्म ही मुझे प्रिय लगता है । तू भी सदा धर्म से ही प्रेम किया कर । धर्म से ही प्राणी की रक्षा होती है । यदि तू धर्म में स्थित रहेगी तो, इस असत्य-दु:ख रूप संसार से धर्म तेरी रक्षा करेगा । धर्म के त्याग से पापों की वृद्धि होती है और पाप प्राणी को पतन की ओर ले जाते हैं । धर्म उन्नति की ओर ले जाता है । धर्म का आश्रय लेने वाला मनुष्य क्रमश: उन्नत होता हुआ, परब्रह्म को प्राप्त हो जाता है ।”
(क्रमशः)

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