*श्री सन्त-गुण-सागरामृत श्री दादूराम कथा अतिपावन गंगा* ~ स्वामी माधवदास जी कृत श्री दादूदयालु जी महाराज का प्राकट्य लीला चरित्र ~ संपादक-प्रकाशक : गुरुवर्य महन्त महामण्डलेश्वर संत स्वामी क्षमाराम जी ~
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*(“सप्तम - तरंग” ३०-२)*
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*इन्दव छन्द*
आदि भयो सिकदार तपो भय,
दूसर काजि हु हाथ गिराई ।
बैर किये घर नारि जरे सुत,
जो डर मान पर्यो पद आई ।
खान बालिदं जु शीश निवावत,
तुर्क चिताय तपे अधिकाई ।
देखन की उपजी मन भावन,
का उन साधुन की प्रभताई ॥३०॥
साँभर में सिकदार, काजी, बालिदं खान आदि तुर्को को परचे - चमत्कार दिखाने से स्वामीजी की शोभा चर्चा बहुत फैल गई थी । लोग सिद्ध तपस्वी के दर्शनार्थ उमड़ने लगे ॥३०॥
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पुत्र धनादिक को जग दौरत,
नाहिं गिनै कछु साँझ सँवारी ।
डाटत नांहि रहे वरज्या नर,
दादुदयालु जपे नर नारी ।
भीर घनी निशि वासर द्वारहिं,
अन्तर होत जु ध्यान हिं भारी ।
माधवदास गुरु तब भाखत,
साँभर छाड़ि चलो तप धारी ॥३१॥
दुनिया के लोग पुत्र धन आदि की लिप्सा से सिद्ध संतों की तरफ दौड़ने लगे । वे उनके प्रात: सायं सन्ध्या वन्दना के समय का भी ध्यान नहीं रखते । रोकने पर भी नहीं रुकते । अहर्निश दादूद्वारे में भीड़ रहने लगी, जिससे भजन साधना में अन्तराय(विघ्न) होने लगा । तब गुरुजी ने माधवदास से कहा - अब यहाँ भजन में विध्न होने लगा है, अत: इस साँभर शहर को छोड़कर अन्यत्र चलो ॥३१॥
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*सांभर का त्याग*
स्वामी पधारत हैं तजि साँभर,
होत उदास सबै नर नारी ।
शिष्य पचीस लिये अपने संग,
अन्य हु शिष्य रमै दिशि चारी ।
साँभर धाम रहे युग शिष्य जु,
दास नारायण गोविन्द भारी ।
माधो कहे उपदेश दियो निज,
दादू दयालु हिं जाप उचारी ॥३२॥
स्वामीजी जब पधारने लगे तो साँभर के नर - नारी उदास हो गये । श्री दादूजी ने अपने साथ पच्चीस शिष्यों को चलने के लिये कहा । शेष शिष्य विभिन्न दिशाओं में रम गये । साँभर धाम में दो शिष्य(नारायण दास और गोविन्दास) को उपदेश आदेश देकर नाम जपते हुये रहने की आज्ञा दी ॥३२॥
(क्रमशः)

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