卐 दादूराम~सत्यराम 卐
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*श्री वाह्यांतर वृत्ति वार्ता*
रचना ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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अष्टम दिन ~
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अद्भुत एक सरोवर देखा,
स्नान करें पट धोत न पेखा ।
समझ गई मैं नंगे सारे,
सर सत्संग सखी न विचारे ॥१५॥
आं वृ. - “एक ऐसा अद्भुत सरोवर देखा है । उस पर स्नान तो बहुत-से करते हैं किन्तु वस्त्र धोते निचोते किसी को भी नहीं देखा । बता यह क्या बात है ?”
वां वृ. - “उस पर स्नान करने वाले सब नंगे होंगे । नंगा न्हाय तु कहा निचोवे । यह लोकोक्ति प्रथम ही प्रसिद्ध है ।”
आं वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो सत्संग सरोवर है । सत्संग में मन के मल(पाप) की निवृत्ति तो होती है किन्तु वस्त्र नहीं धोये निचोये जाते । तू भी सदा सत्संग किया कर, जिससे तेरा भी मन परम शुद्ध हो जायेगा और शुद्ध मन पर भक्ति का रंग अच्छा चढ़ेगा ।”
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सखी ! एक वसता सर मांही,
निज स्वभाव तजता सो नांहीं ।
है यह पत्थर मैं पहचानी,
सर सत्संग मूढ़ अभिमानी ॥१६॥
आं वृ. - “एक सरोवर में बसता है किन्तु अपने स्वभाव को नहीं त्यागता । बता वह कौन है ?”
वां वृ. - “यह तो पत्थर है । पत्थर चिरकाल तक तालाब के जल में रहने पर भी अपनी कठोरता और अग्नि को नहीं त्यागता ।”
आं वृ. - “नहिं, सखि ! यह तो सत्संग रूप सरोवर है । मूढ़ अभिमानी मनुज सत्संग में बैठकर के भी अपने हीन स्वभाव का त्याग नहीं करता । तू ऐसा सत्संग मत करना, नहीं तो कुछ भी लाभ न होगा । सत्संग में बैठकर अपने स्वभाव पर विजय नहीं किया तो सत्संग ही क्या किया । तू सत्संग के द्वारा हीन स्वभाव की छोड़ कर श्रेष्ठ स्वभाव बनाने का यत्न सदा करते रहना ।”
(क्रमशः)

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