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साभार ~ संतकवि कविरत्न स्वामी नारायणदास जी महाराज, पुष्कर, राजस्थान ॥
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*निष्कामी पतिव्रता का अंग ८/४८*
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*नारी पुरषा देखकर, पुरुषा नारी होय ।*
*दादू सेवक राम का, शीलवंत है सोई ॥४८॥*
दृष्टांत -
सुनके बन्दी राबिया, जन चल आये चार ।
शील एकता सब्र सम, बीबी कहा विचार ॥१२॥
रबिया बाई को परमात्मा की परम भक्त सुनकर चार मानव उनके दर्शन करने जहां वे वन में रहती थी वहां आये और शिष्टाचार के पश्चात् उन्होंने रबिया से पू़छा - आप नारी शरीर होकर भी इस भयंकर वन में निर्भयता से कैसे रहती हो ? तब बीबी रबिया ने कु़छ विचार करके कहा - मैं शील, एकता, सब्र(संतोष) और सम के कारण ही निर्भय होकर रहती हूँ ।
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(१)शील - पुरुष को भी नारी समझती हूं, अतः कामुक वृत्ति नहीं होने से कामजन्य क्लेश मुझे नहीं होता अथवा शील-सुन्दर स्वभाव होने से सर्वप्रिय हो गई हूँ, अतः अन्यों से मुझे भय नहीं होता ।
(२)एकता - सबको अपने ही समान ही देखती हूँ अतः सब मुझसे प्रेम ही करते हैं, वन्य हिंसक पशु भी मुझे भय नहीं देते ।
(३)सब्र(संतोष) - से रहती हूँ, अतः अभाव जन्य भय भी मुझे नहीं होता । (४)सम(ब्रह्म) - सबको ब्रह्मरूप ही देखती हूँ, ब्रह्म मेरे उपास्य हैं उनसे भय की सम्भावना ही कहां है ।
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बीबी रबिया के उक्त विचार सुनकर चारों को पूर्ण संतोष हुआ फिर वे प्रणाम करके चले गये । उक्त ४८ की साखी में नारी पुरुषा देखकर अर्थात् भक्त नारी पुरुष को भी नारी ही देखती है । इसी पर उक्त कथा है, वैसे ही राम का सेवक सबको रामरुप ही देखता है । अतः वही शीलवन्त है ।
(क्रमशः)

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